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सम्पादकीय : ७ हमने इसके पाठान्तर नहीं लिये । मात्र उसका उपयोग किया है।
७. 'द' प्रति-यह देहली नया मन्दिर शास्त्रभण्डारकी प्रति है, जिसके पाठान्तर 'द' के नामसे संगृहीत किये हैं। प्रति शुद्ध और सुवाच्य है।
८. 'मु०'-यह मुद्रित प्रति है, जो सन् १९१४ में काशीकी जैनसिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था द्वारा प्रकाशित है। इसमें २६ x २९ साइजके ३० पृष्ठ हैं। यह काफी अशुद्ध छपी है और वाक्य भी पर्याप्त छूटे हैं । इस संस्करणको विशेषताएँ
इस संस्करणकी अनेक विशेषताएँ हैं । प्रथम तो परिश्रमपूर्वक संशोधन किया गया है और सन्दर्भानुसार शुद्ध पाठ मूलमें तथा अन्य पाठान्तर पाद-टिप्पणमें निक्षिप्त किये हैं। दूसरे, पूरे ग्रन्थमें विषय-बार अनुच्छेद (पैराग्राफ) तथा विषय-बोधक शीर्षक एवं उपशीर्षक दे दिये हैं। तीसरे, ग्रन्थके चार प्रकरणों (प्रमाणलक्षण-परीक्षा, प्रमाणसंख्या-परीक्षा, प्रमाणविषय-परीक्षा और प्रमाणफल-परीक्षा) को खोजकर उन्हें दिया गया है। चौथे, १२० पृष्ठकी महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना संलग्न है, जिसमें प्रमाण-सम्बन्धी चिन्तन तथा मूल ग्रन्थका हिन्दी रूपान्तर सन्निहित है । पाँचवें, परिशिष्ट एवं विषय-सूची भी दे दी गयी है। इस तरह मुद्रित संस्करणकी अपेक्षा यह संस्करण एक विशिष्ट और अधिक उपयोगी बन गया है, जो सभीके लिए लाभदायक सिद्ध होगा। हमें प्रसन्नता है कि सन् १९६२में आरब्ध तथा १९७३में मूलरूपमें छपी यह कृति सर्वांगरूपमें अब प्रकाशमें आ रही है। आभार
जैन मठ मूडबिद्रीके शास्त्र-भण्डारके अधिकारी और श्री मूडबिद्री जैन क्षेत्रके पंच धर्मानुरागी श्री बी० धर्मपालजो सेट्ठीने श्री बी० पं० देवकुमारजीको उक्त प्रतियोंके पाठान्तर लेनेकी बड़ी उदारता दिखायी
और ग्रन्थ-भण्डारके व्यवस्थापक श्री पं० नागराजजी शास्त्रीने पूरी व्यवस्था की, इसके लिए हम इन दोनों धर्मबन्धुओंको हार्दिक धन्यवाद देते हैं। पं० बी० देवकुमारजी शास्त्रीके भी अत्यन्त आभारी हैं. जिनके प्रयत्नसे ही हम 'प्रमाण-परीक्षा' की ताडपत्रीय प्रतियोंके पाठान्तर और उनका परिचय देनेमें समर्थ हो सके।
यहाँ बड़े हर्षके साथ उल्लेखनीय है कि सम्प्रति जैन मठके सर्वसत्त्वाधिकारी पूज्य भट्टारक पण्डिताचार्य श्री चारुकीर्ति पी० स्वामी हैं, जो
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