________________
६ : प्रमाण-परीक्षा
और ग्रन्थ नं० २९३ वीं प्रति है। पत्रसंख्या ६६ है जिनमें ४८ वा पत्र खण्डित है और ५३ ५५, ६० ये तीन पत्र अनुपलब्ध हैं। प्रतिपत्रमें ६ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति में ५४ अक्षर हैं। लम्बाई १७ अंगुल और चौड़ाई १/७ अंगुल है। प्रति सामान्यतया शुद्ध है और अक्षरोंकी रचनासे उत्तर कर्नाटककी अर्वाचीन प्रतीत होती है । जहाँ तहाँ संस्कृतकी टिप्पणियाँ इसमें भी पायी जाती हैं। इसके बावजूद अशुद्ध पाठ भी अधिक मात्रामें मिलते हैं, जिससे प्रतिलिपिकार न्याय एवं दर्शनसे अनभिज्ञ मालूम पड़ता है। ___४. 'ड' प्रति-उपर्युक्त ग्रन्थ-सूचीकी पृष्ठसंख्या ९९ में यह दर्ज है। इसकी अनुक्रमसंख्या १०५ और ग्रन्थसंख्या ५४८ है। पत्रसंख्या १० है, जिनमें ६, ७, ८ वें पत्र बीचसे टूट गये हैं और कई अक्षर चले गये हैं। प्रत्येक पत्र में ११ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में ९९ अक्षर हैं। लम्बाई १८/५ अंगुल और चौड़ाई २/२ अंगुल है। इस प्रतिमें प्रारम्भसे करीब अर्धभाग तकका ही ग्रन्थ-विषय पाया जाता है-अर्थात् यह आधी प्रति है। पत्रके ऊपर, नीचे, अगल-बगलमें अनेक संस्कृत-टिप्पणियाँ उपलब्ध हैं, जिन्हें पढ़ना बड़ा मुश्किल है और वे किस शब्दकी हैं, इसका पता लगाना भी बड़ा कठिन है । अक्षर छोटे-छोटे सटे-सटे लिखे जानेसे सावधानीसे पढ़े जाने योग्य हैं । प्रति शुद्ध है ।
५. 'इ' प्रति—यह भी उक्त ग्रन्थ सूची के पृष्ठ ९९ में अंकित है। इसकी अनुक्रमसंख्या १०४ और ग्रन्थसंख्या ५०८ है। पत्रसंख्या १५ है, जिनमें छठा पत्र खण्डित है। प्रतिपत्रमें ७ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्तिमें ४६ अक्षर हैं। लम्बाई १८/५ अंगुल और चौड़ाई १/९ अंगल है। प्रति करीब अर्ध भागसे आगे और अन्ततक है। लेकिन यह 'ड' प्रतिका उत्तरार्ध नहीं है । प्रति सामान्य है । यत्र तत्र संस्कृतकी टिप्पणियाँ भी हैं ।
६. 'आ' प्रति-यह प्रति आमेर शास्त्रभण्डार महावीर-भवन जयपुर को है, जो सं० १६५९, शाके १५१९ फाल्गुन सुदी १५ को लिखी गयी है। इसमें अन्तिम पूष्पिका-वाक्य निम्न प्रकार है-'इति प्रमाणपरीक्षा समाप्ता' । संवत् १६५९, शाके १५१९ फाल्गण सुदि १५ खंडेलवालान्वये श्रेष्ठिगोत्रे पांडे पारस तत्पुत्र चिरं नाथू द्वितीयर्षेमर स्वपठनार्थं स्वहस्तेन लिखित् ।। दीर्घायुर्भवतु ॥ पुत्रात्त्यां शाकं चिरं नंदतु ॥ श्रेयोस्तु । कल्याणमस्तु ॥' यह प्रति कष्टसे वाच्य है और अक्षर साफ नहीं हैं। अतएव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org