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________________ प्रस्तावना : ५९ प्रतिभास इन्द्रियप्रत्यक्षका है वैसा मानसप्रत्यक्षका नहीं है । इस तरह इन चारों प्रत्यक्षोंमें पृथक्-पृथक् प्रमाणता प्रतिभासभेदके आधारसे क्यों सिद्ध नहीं होगी। ___ शंका-प्रतिभासभेद होनेपर भी चारों प्रकारका भी प्रत्यक्ष एक ही है, अलग-अलग प्रमाण नहीं हैं ? __समाधान-प्रतिभासभेद होनेपर भी यदि उक्त चारों प्रत्यक्ष एक ही हैं, तो प्रत्यक्ष और अनुमान भी प्रतिभासभेद होनेपर भी अपने-अपने विषयके प्रति सम्बन्ध समान होनेसे पृथक्-पृथक् प्रमाण न हों। ___ शंका-अपने-अपने विषयके प्रति सम्बन्ध समान होनेपर भी प्रत्यक्ष और अनुमानकी सामग्री भिन्न होनेसे उन्हें पृथक प्रमाण स्वीकार किया जाता है ? समाधान-शाब्द, उपमान आदिकी भी सामग्री पृथक्-पृथक् होनेसे उन्हें भी अलग प्रमाण मानना चाहिए। जिस प्रकार प्रत्यक्ष इन्द्रियादि सामग्रीसे और अनुमान लिङ्गादि सामग्रीसे उत्पन्न होनेसे उनकी भिन्न सामग्री मानी जाती है उसी प्रकार आगम शब्दसामग्रीसे, उपमान सादृश्यसामग्रीसे, अर्थापत्ति परोक्ष अर्थके अविनाभावी अर्थरूप सामग्रीसे और अभाव प्रतिषेध्यकी आधारभूत वस्तुके ग्रहण तथा प्रतिषेध्यके स्मरणरूप सामग्रीसे पैदा होनेसे आगम आदिकी भी सामग्री भिन्न-भिन्न है । इसी तरह इन्द्रियप्रत्यक्ष आदि चारों प्रत्यक्षोंकी भी भिन्न-भिन्न सामग्री प्रसिद्ध है। किन्तु चारों प्रत्यक्षोंका विषय साक्षात् अर्थ होनेसे उनमें अर्थभेद नहीं माना जाता। उसी प्रकार लिङ्ग, शब्दादि सामग्रीका भेद होनेसे अनुमान, आगम आदिमें परोक्ष अर्थको समान रूपसे विषय करने पर भी भेद प्रसिद्ध है, अनुमानमें उनका अन्तर्भाव सम्भव नहीं है। तकंप्रमाण-विमर्श तथा तर्क भी पृथक् प्रमाण है। साध्य और साधनमें विद्यमान सम्बन्धरूप व्याप्तिका ज्ञान करने में प्रत्यक्ष समर्थ नहीं है, क्योंकि वह 'जितना कोई धम है वह सब अन्य काल और अन्य देशमें अग्निजन्य है, अग्निके अभावमें उत्पन्न नहीं होता' इस प्रकारका व्यापार करने में असमर्थ है। दूसरी बात यह है कि वह सन्निहित (वर्तमान और इन्द्रियसम्बद्ध) अर्थको ही विषय करता है। तीसरे, वह निर्विकल्पक है। यदि कहा जाय कि योगिप्रत्यक्ष उक्त व्याप्तिका ज्ञान करने में समर्थ है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रश्न होगा कि देशयोगिप्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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