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५८ : प्रमाण-परीक्षा
उनका भी कथन युक्त नहीं है, क्योंकि आगम, उपमान आदि अन्य प्रमाणोंका उक्त प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा संग्रह नहीं होता और इसका कारण यह है कि उनका इन दोमें अन्तर्भाव सम्भव नहीं है।
यदि बौद्धोंका यह मत हो कि आगम, उपमान आदि प्रमाणोंके द्वारा ग्राह्य अर्थ दो ही प्रकारका होनेसे उनका उक्त दो ही प्रमाणोंमें अन्तर्भाव हो जाता है। स्पष्ट है कि अर्थ (पदार्थ) दो ही प्रकारका है-१. प्रत्यक्ष और परोक्ष । जो साक्षात् रूपमें प्रत्यक्षसे जाना जाता है वह प्रत्यक्ष अर्थ है । और जो परम्परया (लिङ्गादि द्वारा) अनुमेय होनेसे अनुमानगम्य है वह परोक्ष अर्थ है। परोक्ष अर्थ निश्चय ही साक्षात् जाने गये अन्य पदार्थसे जाना जाता है। और वह अन्य पदार्थ उस परोक्ष अर्थके साथ सम्बद्ध (अविनाभावी) होता हुआ हो उस परोक्ष अर्थको जनवानेमें समर्थ होता है, असम्बद्ध नहीं, अन्यथा गाय आदिसे भी अश्व आदिकी प्रतीति होनेका प्रसंग आयेगा । तथा जो सम्बद्ध अन्य पदार्थ है वह शब्द, सादृश्य, अनन्यथाभाव आदि रूप लिङ्ग ही है और उससे उत्पन्न ज्ञान अनुमान ही है। अतः परोक्ष अर्थको जाननेके लिए अनुमानसे अतिरिक्त प्रमाण नहीं, शाब्द, उपमान आदि भी उक्त रीतिसे अनुमान ही सिद्ध होते हैं। यदि इन्हें अनुमान न माना जाये तो उनके प्रमाणता न होनेसे उनसे होने वाला पदार्थोंका ज्ञान अप्रमाण ही सिद्ध होगा।
तो उनका उक्त मत परीक्षासह नहीं है, क्योंकि उक्त रीतिसे प्रत्यक्ष भी अनुमान हो जायगा। प्रकट है कि प्रत्यक्ष भी अपने ग्राह्य अर्थके साथ सम्बद्ध होकर ही उसके ज्ञान कराने में समर्थ है। यदि वह उसके साथ सम्बद्ध न होकर भी उसका ज्ञान करा सकता है तो सभी प्रत्यक्ष सभी पुरुषोंको सभी पदार्थोंका ज्ञान कराने में भी समर्थ हो जायेंगे, इस अतिप्रसंगका निवारण कैसे होगा। अगर यह कहा जाय कि सम्बद्ध होना प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकारके ज्ञानोंमें सामान्य होनेपर भी साक्षात् जानने और असाक्षात् जाननेके भेदसे प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण स्वीकृत हैं, तो इन्द्रियप्रत्यक्ष, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष ये चार प्रत्यक्ष भी पथक प्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि उनका भी प्रतिभास भिन्न-भिन्न है। स्पष्ट है कि जैसा अत्यन्त विशद प्रतिभास योगिप्रत्यक्षका है वैसा इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षका नहीं है। और न स्वसंवेदन तथा मानसप्रत्यक्षका है। इसी प्रकार जैसा अन्तर्मुखाकार विशदतर प्रतिभास स्वसंवेदनप्रत्यक्षका है वैसा इन्द्रियप्रत्यक्षका नहीं है । और जैसा बाह्यमुखाकार विशद
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