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प्रस्तावना : ५७
परलोक आदिका अभाव है, तो यह मान्यता भी संगत नहीं है, क्योंकि तव प्रश्न होगा कि 'परलोक आदिका अभाव है,' यह आपने कैसे जाना ? प्रत्यक्ष से तो उनका ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षके वे ( परलोकादि) विषय नहीं हैं। वर्तमान और इन्द्रियसम्बद्ध पदार्थको ही प्रत्यक्ष जानता है । परलोक आदि न वर्तमान हैं और न इन्द्रिय
सम्बद्ध ।
अगर कहा जाय कि 'परलोक आदि उपलब्ध न होनेसे नहीं हैं, जैसे आकाशका फूल', तो अभावको सिद्ध करनेवाला यह अनुपलब्धिहेतु जनित एक अन्य अनुमान और सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह चार्वाकों को परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका अभाव सिद्ध करनेके लिए अनुपलब्धिलक्षण अनुमानको स्वीकार करना अनिवार्य है । यही बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्तिने कहा है
ः।
प्रमाणेतर सामान्य स्थितेरन्यधियो गतेः प्रमाणान्तर- सद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥
'किसी ज्ञानमें प्रमाणता और किसी ज्ञानमें अप्रमाणताकी व्यवस्था होनेसे, दूसरे ( शिष्यादि) में बुद्धिका अवगम करनेसे और किसी पदार्थका निषेध करनेसे प्रत्यक्षके अतिरिक्त अनुमान प्रमाणका सद्भाव सिद्ध होता है ।' तात्पर्य यह कि हेतु तीन प्रकारका है - १. स्वभाव हेतु, २. कार्यहेतु और ३ अनुपलब्धि हेतु । इन हेतुओंसे होनेवाली अनुमेयकी सिद्धि अनुमान है । प्रमाणता - अप्रमाणताका निर्णय स्वभावहेतुजनित अनुमानसे, कार्यसे कारणका ज्ञान कार्यहेतुजनित अनुमानसे और अभावका ज्ञान अनुपलब्धिहेतुजनित अनुमानसे किया जाता है । इस प्रकार प्रत्यक्ष से अतिरिक्त अनुमान प्रमाणको भी मानना चाहिए और उसका अन्तर्भाव प्रत्यक्षमें असम्भव है ।
बौद्धमत - समीक्षा
यहाँ बौद्ध कहते हैं कि इसी से हमने दो ही प्रमाण माने हैं - १. प्रत्यक्ष और २. अनुमान, क्योंकि उनके द्वारा जाना जानेवाला प्रमेय ही दो प्रकारका है । इन दो प्रमाणोंसे घटादि एवं बह्वयादि पदार्थोंको जानकर उनमें प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंको उससे निष्पन्न होनेवाली अर्थक्रिया ( जलधारणादि) में कोई विसंवाद (भ्रमादि ) नहीं होता । अतः प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाणके भेद हैं ।
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