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________________ ५६ : प्रमाण-परीक्षा व्यवस्था है, तो यह बतायें कि उनका अपना प्रत्यक्ष उसका व्यवस्थापक है या समस्त जनोंका ? प्रथम पक्ष माननेपर समस्त विश्व और समस्त कालोंके पुरुषोंका प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध नहीं होगा। द्वितीय पक्ष स्वीकार करने पर भी दो विकल्प होते हैं। प्रथम यह कि उन पुरुषोंके वे प्रत्यक्ष आपके प्रत्यक्षसे प्रमाण हैं या उन पुरुषोंको वे स्वतः प्रमाण अनुभवमें आते हैं ? पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि अन्य पुरुषोंके वे प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय हैं और वादीके प्रत्यक्षके अविषय हैं, अतः वे आपके प्रत्यक्षसे सिद्ध नहीं हो सकते। द्वितीय विकल्प भी युक्त नहीं हैं, क्योंकि "समस्त पुरुषों के प्रत्यक्ष अपने-अपने विषयमें स्वयं प्रमाणभूत है' इसका साधक कोई प्रमाण नहीं है। यदि है तो वह कौन-सा प्रमाण है ? _ 'विचारकोटिमें स्थित समस्त देशों और समस्त कालोंमें होनेवाले पुरुषोंके प्रत्यक्ष स्वतः प्रमाण हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष हैं, जो-जो प्रत्यक्ष हैं वह स्वतः प्रमाण हैं, जैसे हमारा प्रत्यक्ष, और प्रत्यक्ष हैं विचारकोटिमें स्थित समस्त देशों तथा समस्त कालों में होनेवाले पुरुषोंके प्रत्यक्ष, इस कारण वे प्रमाण हैं' यह अनुमान प्रमाण है, जो समस्त पुरुषोंके प्रत्यक्षोंको प्रमाण सिद्ध करता है। ___चार्वाकोंका यह कथन अनुमान प्रमागको सिद्ध करता है, जिसका वे निराकरण करते हैं, क्योंकि 'प्रत्यक्ष हैं' रूप स्वभावहेतुसे 'पुरुषोंके प्रत्यक्ष स्वतः प्रमाणभूत हैं' रूप साध्यको उन्होंने सिद्धि की है। जैसे शिशपा हेतुसे वनस्पति (पेड़ आदिमें) वृक्षपना सिद्ध किया जाता है। अगर कहें कि प्रतिपाद्य (शिष्य) को समझानेकी अपेक्षा उक्त प्रकार अनुमानको कहनेमें कोई दोष नहीं है, तो प्रश्न उठता है कि शिष्यमें बुद्धिको ज्ञातकर उक्त अनुमानप्रयोग किया जाता है या ज्ञात न कर ? दूसरा पक्ष युक्त नहीं है, क्योंकि बिना जाने अनुमानप्रयोग करने पर सदैव और सर्वत्र उसके प्रयोगका प्रसंग आयेगा। प्रथम पक्ष स्वीकार करने पर यह बताना होगा कि उसका ज्ञान किससे होता है अर्थात् शिष्यमें बुद्धिको जाननेका क्या उपाय है। आप कहें कि वह बातचीत आदि विशेष कार्य करता है, उससे उसमें बुद्धि का निश्चय हो जायगा, तो 'कार्यसे कारणका अनुमान करना' रूप एक और अनुमान प्रमाण सिद्ध होता है, जैसे धूमसे अग्निका अनुमान किया जाता है । यदि माने कि हम लोक-व्यवहारको अपेक्षा अनुमानको स्वीकार करते ही हैं, परलोक आदिके विषयमें अनुमानका निषेध किया है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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