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________________ प्रस्तावना : ५५ ही अनुमानादि होते हैं और उनके न होनेपर वे नहीं होते । अतः उनके प्रत्यक्षपूर्वक होनेकी बात निःसार है। इस विषयमें अधिक कहना व्यर्थ है। __ जब चार्वाक प्रत्यक्षको प्रतिनियत सामग्रीसे उत्पन्न होनेके कारण अगौण मानते हैं तो उन्हें अनुमानादिको भी अपनी-अपनी सामग्रीसे उत्पन्न होनेसे अगौण मानना चाहिए, क्योंकि वे अपने नियत विषयके निश्चय करने में अन्य प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करते। और यही (अपनी नियत सामग्रीसे उत्पन्न होना तथा अपने विषयके निर्णय करने में अन्य प्रमाणकी अपेक्षा न करना) प्रमाणभेदका कारण है। प्रकट है कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष सीधे अपने और बाह्य पदार्थके निर्णयमें अनुमान आदि अन्य प्रमाणोंकी अपेक्षा नहीं करता उसी प्रकार अनुमान अपने विषय अनुमेय ( साध्य ) के निर्णयमें प्रत्यक्षकी अपेक्षा नहीं करता। केवल धर्मी, हेतु और दृष्टान्तका प्रत्यक्ष ही निश्चय कराता है। इसी तरह शाब्द प्रमाण भी शब्द द्वारा कहे जानेवाले पदार्थके निश्चयमें प्रत्यक्ष या अनुमानकी अपेक्षा नहीं करता है। प्रत्यक्ष ( श्रावण ) केवल शब्दग्रहणमें और अनुमान केवल शब्द तथा अर्थके सम्बन्धकी अनुमितिमें प्रवृत्त होते हैं। अर्थापत्ति भी अपने अनन्यथाभावरूप विषयके निश्यचमें प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमकी अपेक्षा नहीं करती। और न ही अभाव तथा उपमानकी वह अपेक्षा करती है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे अवगत पदार्थ (पीनत्वादि) के अविनाभावी अदृष्ट पदार्थ (रात्रिभोजनादि) के निश्चयमें अन्यकी अपेक्षा लिये लिये बिना ही प्रवृत्त होती है। (प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाण तो मात्र अर्थापत्तिके उत्थापक पदार्थ (पीनत्वादि) के निश्चयमें व्यापार करते हैं। उपमान भी प्रत्यक्ष आदिकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि वह अपने विषय उपमेयरूप पदार्थके निश्चय करने में प्रत्यक्षादिनिरपेक्ष ही प्रवृत्त होता है। प्रत्यक्षादि प्रमाण केवल सादृश्यके ज्ञानमें अधिकृत हैं। इसी प्रकार अभावप्रमाण भी प्रत्यक्षादि प्रमाणोंकी अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वह निषेध्य (घटादि) की आधारभूत वस्तू (भ तलादि) के ग्रहणमें अकेला ही समर्थ है। इस प्रकार अनुमानादिमें प्रत्यक्षकी अपेक्षा नहीं है। यदि परम्परासे उनमें उसकी अपेक्षा कही जाय, तो प्रत्यक्षमें भी उनकी परम्परासे अपेक्षा अपरिहार्य है। चार्वाकोंसे पुनः प्रश्न है कि 'प्रत्यक्ष प्रमाण है' इसकी व्यवस्था वे प्रमाणसे करते हैं ? यदि कहा जाय कि स्वतः (प्रत्यक्षसे) ही उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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