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________________ प्रस्तावना : ५३ सिद्ध होता है। वह अदृष्ट कारण ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय नामक कर्म हैं, उनके क्षयोपशम ( विगम ) से किसीको किसी विषयमें कभी अभ्यास ( परिचय ) ज्ञान और उनके क्षयोपशमके अभावमें अनभ्यास (अपरिचय) ज्ञान होते हैं और इस तरह प्रमाणका प्रामाण्य सुव्यवस्थित होता है, क्योंकि उसमें बाधक प्रमाणोंका अभाव सुनिश्चित होता है। जैसे अपनी इष्ट वस्तु । सर्वत्र इष्टकी सिद्धि बाधकाभावके सुनिश्चयसे ही होती है। उसके बिना तत्त्वपरीक्षा नहीं हो सकती । अतः यह सिद्ध है कि___'प्रमाणसे इष्ट तत्त्वकी सम्यक् प्रकारसे सिद्धि (ज्ञप्ति और प्राप्ति) होती है, उसके बिना नहीं। किन्तु उसका प्रामाण्य परिचित विषयमें स्वतः और अपरिचित विषयमें परतः सिद्ध होता है।' इस प्रकार प्रमाणका लक्षण स्वार्थव्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञान है, यह परीक्षासे व्यवस्थित होता है ॥१-६४॥ २. प्रमाणसंख्या-परीक्षा प्रमाणके स्वरूप और उसके प्रामाण्यका विचार करनेके पश्चात् अब उसकी संख्या (भेदों) का विमर्श किया जाता है। उपर्युक्त प्रमाण संक्षेपमें दो ही प्रकारका है-एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष, क्योंकि अन्य समस्त प्रमाणोंका इन्हीं दोमें अन्तर्भाव हो जाता है और अन्य दार्शनिकों द्वारा स्वीकृत प्रमाणके एक, दो, तीन आदि भेदोंमें उनका अन्तर्भाव असम्भव है । आगे यही स्पष्ट किया जाता है-- जो (चार्वाक) केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं उनके उस प्रत्यक्षमें अनुमान आदि अन्य प्रमाणोंका समावेश सम्भव नहीं है, क्योंकि वे उससे बिलकुल भिन्न है। यदि कहा जाय कि अनुमान आदि प्रत्यक्षपूर्वक उत्पन्न होते हैं, अत: उसमें उनका अन्तर्भाव हो जाता है, तो यह कहना युक्त नहीं है, क्योंकि कोई प्रत्यक्ष भी अनुमानादिपूर्वक उत्पन्न होता है, तब उसका अनुमानादिमें अन्तर्भाव मानना पड़ेगा। प्रकट है कि जिस प्रकार धर्मी और हेतुके प्रत्यक्ष होनेके बाद अनुमान होता है, शब्दके श्रावण प्रत्यक्ष होनेके पश्चात् शाब्द होता है और सादृश्य, अनन्यथाभाव एवं निषेध्यके आधारभूत पदार्थके प्रत्यक्ष होनेके अनन्तर उपमान, अर्थापत्ति एवं अभाव प्रमाण होते हैं, उसी प्रकार अनुमानसे अग्निका निश्चय करके उसे प्रत्क्षसे जाननेके लिए प्रवृत्त हुए पुरुषको होनेवाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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