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५२ : प्रमाण-परीक्षा की स्थापना नहीं कर सकेंगे और तब उनका कथन भी प्रलापमात्र कहा जायेगा और वे परीक्षक नहीं कहे जा सकेंगे। इस प्रकार प्रमाणका निर्णय हो जानेपर प्रमेयकी भी सिद्धि निर्बाध रूपसे हो जाती है।
प्रामाण्य-परीक्षा शंका-उक्त प्रकारसे प्रमाण सिद्ध हो जानेपर भी उसका प्रामाण्य स्वतः सिद्ध है या परतः। स्वतः तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि सभी जगह, सभी कालों और सभीको उसमें विवाद नहीं होगा। परसे भी उसका प्रामाण्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि अनवस्था आती है, प्रथम प्रमाणके प्रामाण्य-निर्णयके लिए द्वितीय प्रमाण और द्वितीय प्रमाणके प्रमाण्य-निश्चयके लिए तीसरे प्रमाण आदिकी परिकल्पना होनेसे कहीं भी अवस्थिति नहीं होगी। यदि प्रथम प्रमाणसे द्वितीय प्रमाणका प्रामाण्य निश्चय किया जाय तो अन्योन्याश्रय दोष होता है, क्योंकि प्रथमसे द्वितीय के और द्वितीयसे प्रथमका प्रामाण्य-निश्चय एक-दूसरेके आश्रित है ? ___ समाधान-उक्त प्रकारका विचार समीचीन नहीं है, क्योंकि अपने परिचित विषयमें प्रामाण्यका निश्चय स्वतः हो जाता है, वहाँ हुए ज्ञानके प्रामाण्यके बारेमें किसी अन्यसे पूछनेकी आवश्यकता नहीं होती, वहाँ स्वयं ही प्रमाणात्मक ज्ञान होता है। इसमें प्रमाताको कोई भी विवाद नहीं होता। अन्यथा प्रमाताकी उस पदार्थमें असन्दिग्ध प्रवत्ति नहीं हो सकती। तथा अपरिचित विषयमें प्रमाणके प्रामाण्यका निश्चय परसे होता है। जो पर अर्थात् प्रमाणान्तर है वह परिचित विषय वाला है, उसके प्रामाण्यका निश्चय स्वतः होता है । अतः न अनवस्था दोष आता है और न अन्योन्याश्रय । और यदि प्रमाणान्तर अपरिचित विषय वाला है तो उसके प्रामाण्यका निश्चय ऐसे प्रमाणसे होता है, जो अभ्यस्त विषय वाला होता है और जिसकी प्रमाणता स्वतः सिद्ध होती है । बहुत दूर जाकरके भी कोई अभ्यस्त विषय वाला प्रमाण अवश्य होता है। अन्यथा प्रमाण और प्रमाणाभासको व्यवस्था नहीं बन सकेगी, जैसे प्रमाण और प्रमाणाभासके अभावकी व्यवस्था उसके बिना नहीं बनती।
शंका-ऐसा क्यों होता है कि किसी विषमें प्रतिपत्ताको अभ्यास और किसी विषयमें अनभ्यास हो ?
समाधान-उस विषयके ज्ञानके प्रतिबन्धक (अवरोधक) अदृष्टविशेष (कर्म) के सद्भावसे अनभ्यास तथा उसके विगम (क्षयोपशम) से अभ्यास होते हैं। जहाँ दृष्टकारणों में व्यभिचार देखा जाता है वहाँ अदृष्ट कारण
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