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प्रस्तावना : ४७
प्रधानपरिणामज्ञान-परीक्षा सांख्योंका मत है कि 'सम्यग्ज्ञान स्वव्यवसायात्मक नहीं है, क्योंकि वह अचेतन है, जैसे घटादिक । वह चेतन नहीं है, क्योंकि वह अनित्य है, घटादिककी तरह हो । वह अनित्य है, क्योंकि उत्पन्न होता है, जैसे विद्युत आदि । किन्तु जो स्वसंवेद्य होता है वह चेतन होता है, नित्य होता है और उत्पन्न नहीं होता, जैसे पुरुष तत्त्व ।' __ सांख्योंका यह मत न्याययुक्त नहीं है, क्योंकि हेतु व्यभिचारी है । 'क्योंकि उत्पन्न होता हैं' यह हेतु स्पष्टतया अनित्यताका व्यभिचारी है, निर्वाण (मोक्ष) उत्पन्न तो होता है, पर वह अनन्त (नित्य) होता है। इसी तरह 'क्योंकि वह अनित्य है' यह हेतू भी अचेतनताका व्यभिचारी है, पुरुषभोग, जो बुद्धिके द्वारा अध्यवसित अर्थकी अपेक्षासे होनेके कारण कादाचित्क है, अचेतन न होने पर भी अनित्य माना गया है। सम्यग्ज्ञानको अचेतन कहना तो सर्वथा असिद्ध है, क्योंकि अचेतन ज्ञानसे विवेकख्याति ( पुरुष और प्रधानका भेदज्ञान ) नहीं हो सकती। 'चेतनके संसर्गसे ज्ञान चेतन है' ऐसा मन्तव्य भी युक्त नहीं है, क्योंकि शरीरादि भी चेतनका संसर्ग होनेसे चेतन हो जायेंगे । 'ज्ञानके साथ जो चेतनसंसर्ग है वह विशिष्ट है' यह कथन भी युक्तिपूर्ण नहीं है, क्योंकि कथंचित्तादात्म्यको छोड़कर वह विशिष्ट और क्या हो सकता है। अतः ज्ञानको चेतनात्मक ही मानना चाहिए और उस हालतमें 'अचेतनत्व' हेतु असिद्ध ही है।
सांख्योंने जो यह कहा है कि 'ज्ञान अचेतन है, क्योंकि वह प्रधानका परिणाम है, जैसे पृथिवी आदि महाभूत' वह भी श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि अनुमानगत पक्ष स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे बाधित है और हेतु कालात्ययापदिष्ट (बाधितविषय) हेत्वाभास है । इसके अतिरिक्त प्रतिवादी (जैन) के लिए पक्ष अनुमानबाधित है। वह अनुमान इस प्रकार है----'ज्ञान चेतन है, क्योंकि वह स्वसंवेद्य हैं, जैसे पुरुष, जो चेतन नहीं है वह स्वसंवेद्य नहीं है, जैसे घट आदि' यह केवलव्यतिरेकी अनुमान है । इस अनुमानसे उपर्युक्त अनुमानगत पक्ष बाधित होनेसे उक्त अनुमान गमक (साध्यसाधक) नहीं है। 'ज्ञानमें स्वसंवेद्यपना असिद्ध है' यह कथन सम्यक् नहीं, क्योंकि यदि ज्ञान स्वसंवेद्य न हो, तो अर्थका वह संवेदन नहीं कर सकता, यह हम ऊपर कह ही चुके हैं।
भूतचैतन्य-परीक्षा चार्वाकका मत है कि 'ज्ञान स्वसंवेद्य नहीं है, क्योंकि वह शरीराकार
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