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________________ ४६ : प्रमाण-परीक्षा स्वीकार किया है। 'लब्धि और उपयोग भावेन्द्रिय हैं' [त. सू. २-१८] ऐसा तत्त्वार्थसूत्रकारने प्रतिपादन किया है। अर्थग्रहणशक्तिका नाम लब्धि है और अर्थग्रहणव्यापारका नाम उपयोग है, ऐसा सूत्रकां व्याख्यान है। सिर्फ इतना ध्यातव्य है कि वह उपयोग आत्मासे कथंचित् अभिन्न होनेसे आत्मारूप है, अतएव वह कथंचित् प्रत्यक्ष उपपन्त है। सर्वथा अप्रत्यक्षका हम निरास करते हैं। यही प्रतितिमें आता है, अतः परोक्षकोंको वैसा मानना चाहिए। प्रभाकरमतानुयायी मीमांसकोंका मन्तव्य है कि 'आत्माका प्रत्यक्ष नहीं होता, क्योंकि वह कर्मरूपसे प्रतीत नहीं होता, जैसे करणज्ञान', उनका यह मन्तव्य भी सदोष है, क्योंकि फलज्ञान (परिच्छित्तिरूप क्रिया) के साथ हेतु व्यभिचारी है। फलज्ञान कर्मरूपसे प्रतीत न होने पर भी प्राभाकरोंने उसका प्रत्यक्ष माना है। फलज्ञानको क्रियारूपसे प्रतीत होनेसे प्रत्यक्ष स्वीकार करने पर प्रमाता आत्माको भी कर्तारूपसे प्रतीत होनेके कारण प्रत्यक्ष मानिए। फिर वह फलज्ञान आत्मासे भिन्न है या अभिन्न है या उभय है ? ये तीन प्रश्न उठते हैं। प्रथम व द्वितीय पक्षमें क्रमशः नैयायिक एवं बौद्ध मतका प्रसंग आयेगा। तृतीय पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि पक्षद्वयमें जो दोष कहे गये हैं वे ही इस पक्षमें भी आते हैं। कथंचित् अभिन्न स्वीकार करने पर तो आत्माको भी कथंचित् प्रत्यक्ष मानना अनिवार्य है, क्योंकि वह फलज्ञानसे कथंचित् अभिन्न है, अतः फलज्ञानको प्रत्यक्ष मानने पर उससे कथंचित् अभिन्न आत्माको भी प्रत्यक्ष मानना होगा। उसे सर्वथा अप्रत्यक्ष नहीं माना जा सकता। इस प्रकार 'अप्रत्यक्ष ही आत्मा हैं' यह प्रभाकरका मत निरस्त हो जाता है। __कुछ मीमांसक करणज्ञानकी तरह फलज्ञानको भी परोक्ष मानते हैं और आत्माको प्रत्यक्ष, उनका भी यह मत युक्त नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष आत्मासे कथंचित् अभिन्न फलज्ञान और करणज्ञानको भी प्रत्यक्ष मानना पड़ेगा, उसका निरास कैसे किया जा सकता है। अतः कुमारिल भट्टका मत भी विचारसह नहीं है। अतएव 'सम्यग्ज्ञान स्वव्यवसायात्मक है, क्योंकि वह अर्थपरिच्छित्तिमें निमित्त है, जैसे आत्मा,' यह व्यवस्था युक्त है। 'नत्र, आलोक आदिके साथ हेतु व्यभिचारी है' यह मन्तव्य भी युक्त नहीं है, क्योंकि नेत्र आदिको उपचारसे ही अर्थपरिच्छित्तिमें निमित्त कहा है, परमार्थसे प्रमाता और प्रमाण ही अर्थपरिच्छित्तिमें निमित्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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