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________________ ४८ : प्रमाण-परीक्षा परिणत पृथिवी आदि भूतोंका परिणाम है, जैसे पित्तआदि,' उनका भी यह मत निरस्त हो जाता है, क्योंकि हेतु असिद्ध है और असिद्ध इसलिए कि ज्ञान किसी भी प्रमाणसे भूतविशेषोंका परिणाम सिद्ध नहीं होता, अन्यथा उसका बाह्येन्द्रियोंके द्वारा प्रत्यक्ष होनेका प्रसंग आयेगा, जैसे गन्ध आदि । 'सूक्ष्मभूत विशेषोंका परिणाम होनेसे ज्ञानका बाह्येन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होता' यह मान्यता भी ठीक नहीं है क्योंकि तब वह सूक्ष्म भूतविशेष, जो स्पर्शादिसे रहित है, ज्ञानका उपादान कारण है और सदैव बाह्येन्द्रियोंका अप्रत्यक्ष है, दूसरे शब्दोंमें आत्मा ही क्यों नहीं कहा जायगा । यदि उसे उससे भिन्न माना जाय, तो वह भूतचतष्टयसे विलक्षण होनेके कारण तत्त्वान्तर होगा। फलतः दृष्टकी हानि और अदृष्टकी कल्पना प्रसक्त होगी। इसके विपरीत आत्मा प्रमाणसिद्ध होनेसे ज्ञानको उसका परिणाम मानना युक्त है। अतः यह व्यवस्थित होता है कि 'सम्यग्ज्ञान स्वनिश्चायक है, क्योंकि वह चेतन आत्माका परिणाम होकर अर्थका परिच्छेदक है। जो स्वनिश्चायक नहीं है वह चेतनका परिणाम न होकर अर्थपरिच्छेदक नहीं है, जैसे घड़ा, और चेतनका परिणाम होकर अर्थपरिच्छेदक सम्यग्ज्ञान है, इसलिए वह स्वनिश्चायक है। इस प्रकार 'सम्यग्ज्ञान प्रमाण है' यह सिद्ध है। तत्त्वोपप्लव-परीक्षा तत्त्वोपप्लववादियोंका मन्तव्य है कि प्रमेयतत्त्वकी तरह प्रमाणतत्त्व भी उपप्लुत (बाधित) होनेसे वास्तवमें कोई प्रमाण नहीं है, तब किसका लक्षण किया जाता है, क्योंकि लक्ष्यके सद्भावमें ही लक्षणका कथन होता है। प्रसिद्ध लक्ष्यका अनुवाद करके लक्षणका विधान किया जाता है' ऐसा लक्ष्यलक्षणभावको मानने वालोंने स्वीकार किया है ? उक्त मन्तव्य समीचीन नहीं, क्योंकि तत्त्वोपप्लववादी यदि 'तत्त्वोपप्लवमात्र' मानते हैं तो उसे सिद्ध करनेके लिए साधन अवश्य स्वीकार करना होगा और वह साधन प्रमाण ही हो सकता है। अतएव हम कह सकते हैं कि तत्त्वोपप्लवादीको भी प्रमाण मानना इष्ट है, क्योंकि इष्टका साधन उसके बिना सम्भव नहीं है । यदि प्रमाणके बिना भी इष्टकी सिद्धि मानी जाय तो सभीके अपने-अपने इष्टको सिद्धि हो जायगी। फलतः अनुपप्लुततत्त्वको भी सिद्धि हो जायगी, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है। शंका-हम अपने इष्टकी सिद्धि अस्तित्वमुखेन नहीं करते, जिससे तत्त्वोपप्लवकी सिद्धि करने पर प्रमाणकी सिद्धिका प्रसंग आये। किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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