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प्रस्तावना : ४३
का विभाग नहीं रहेगा। और जब महेश्वरका प्रथम अर्थज्ञान भी अप्रत्यक्ष ही स्वीकार करें तो उस अप्रत्यक्ष अर्थज्ञानके द्वारा महेश्वरके समस्त पदार्थों के प्रत्यक्ष होनेका कैसे समर्थन किया जा सकता है। इस प्रकारसे तो समस्त प्राणियोंके सर्वज्ञ होनेका प्रसंग तदवस्थ रहेगा। इसका परिणाम यह होगा कि नैयायिकको महेश्वरकी असर्वज्ञता अथवा समस्त प्राणियोंकी सर्वज्ञता स्वीकार करना पड़ेगी, क्योंकि न्यायबलसे ऐसा सिद्ध होता है । और यदि वह ऐसा नहीं मानता है, तो वह नैयायिक (न्यायपक्षावलम्बी) कैसे कहा जा सकता है ।
यदि ईश्वरका ज्ञान समस्त पदार्थोंकी तरह अपनेको भी प्रत्यक्ष करता है, क्योंकि वह नित्य एवं एकरूप है। उसके क्रमसे होनेवाले अनेक अनित्य ज्ञान मानने पर तो महेश्वर युगपत् समस्त पदार्थोंका साक्षात्कारी नहीं हो सकेगा और उस दशामें वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता, ऐसा कहा जाय, तो पूवोक्त अनुमानमें दिया गया 'प्रेमयत्व' हेतु इसी नित्य महेश्वरज्ञानके साथ अनैकान्तिक क्यों नहीं होगा। ___ शंका-बात यह है कि हम सामान्यजनोंके ज्ञानकी अपेक्षा अर्थज्ञानको 'प्रमेयत्व' हेतुके द्वारा ज्ञानान्तरवेद्य सिद्ध करते हैं, महेश्वरके अर्थज्ञानको नहीं, अतः हेतु उसके साथ व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि वह हम लोगोंके ज्ञानकी अपेक्षा विशिष्ट है। और जो धर्म विशिष्ट में देखा जाता है वह अविशिष्ट (सामान्य) में भी नहीं आरोपा जा सकता है, वह प्रेक्षावान् नहीं कहा जायगा?
समाधान-उक्त शंका ठीक नहीं है, क्योंकि हम लोगोंका ज्ञानान्तर भी अन्य ज्ञानके द्वारा वेद्य माननेपर अनवस्था दोष आता है। यदि वह ज्ञानान्तर अन्य ज्ञानके द्वारा वेद्य नहीं है तो 'प्रमेयत्व' हेतु उसीके साथ अनैकान्तिक है । 'वह किसी ज्ञानका प्रमेय ही नहीं है' ऐसा कहा नहीं जा सकता, क्योंकि प्रतिपत्ताके उस ज्ञानकी फिर किसी प्रमाणसे व्यवस्था नहीं हो सकती। यदि सर्वज्ञके ज्ञानका भी वह प्रमेय न हो, तो सर्वज्ञके सर्वज्ञता नहीं बन सकेगी। अतः हम लोगोंके ज्ञानकी अपेक्षा भी ज्ञानको, ज्ञानान्तरप्रत्यक्ष 'प्रमेयत्व' हेतुके द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता। दूसरे, ज्ञान प्रत्यक्षसे ही स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध होनेसे उपर्युक्त अनुमानगत पक्ष प्रत्यक्षबाधित है और हेतु कालात्य. यापदिष्ट (धितविषय) हेत्वाभास है। इसी प्रकार अर्थज्ञानको ज्ञानान्तरवेद्य सिद्ध करनेके लिए तीनों कालों तथा तीनों लोकोंके पुरुष
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