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________________ ४४ : प्रमाण-परीक्षा समूह द्वारा प्रयुक्त हेतुसमुदाय कालात्ययापदिष्ट जानना चाहिए। इसी कथनसे यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि एक आत्मामें समवायसम्बन्धसे रहनेवाले उत्तरकालीन ज्ञानके द्वारा अर्थज्ञानका ग्रहण हो जाता है, क्योंकि उत्तरकालीन ज्ञान भी उत्तरोत्तर ज्ञानग्राह्य होनेपर अनवस्था आती है, यह कहा ही जा चुका है। अतः ज्ञानको अस्वसंविदित न मानकर स्वसंवेदी मानना चाहिए और तब सम्यग्ज्ञान स्वार्थव्यवसायात्मक सुसिद्ध होता है । परोक्षज्ञान-परीक्षा मीमांसकोंका मत है कि ज्ञान स्वव्यवसायात्मक नहीं है, वह परोक्ष है। हमारे यहाँ बुद्धिको अप्रत्यक्ष और अर्थको प्रत्यक्ष कहा गया है । अर्थ बाह्य देशसे सम्बद्ध ही प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है और उसके प्रत्यक्ष होनेके बाद प्रतिपत्ता अनुमानसे उस अर्थको जानने वाली बुद्धिको जानता है, ऐसा शावरभाष्यमें कहा है । इसके अतिरिक्त ज्ञानको अर्थकी तरह प्रत्यक्ष मानने पर वह कर्म (विषय) हो जायगा और तब उसके लिए एक अलग करणरूप अन्य ज्ञानका मानना आवश्यक होगा। उसे अप्रत्यक्ष स्वीकार करने पर प्रथम ज्ञानको ही अप्रत्यक्ष मानने में क्या असन्तोष हैं ? और उसे भी प्रत्यक्ष कहने पर वह करणरूप ज्ञान प्रथम ज्ञानकी तरह कर्म हो जायगा तथा उसके लिए करणरूप अन्य ज्ञानकी कल्पना करनेपर अनवस्था दोष अपरिहार्य है । इसके अलावा एक ज्ञानके कर्म और करण रूप दो आकार सम्भव नहीं हैदोनोंका विरोध है। इसलिए मनीषियोंको ज्ञानको प्रत्यक्ष नहीं मानना चाहिए-उसे परोक्ष स्वीकार करना चाहिए। मीमांसकोंकी यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यदि ज्ञान अप्रत्यक्ष हो, तो वह किसी भी तरह अर्थका प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। अर्थात् जो स्वयं अपनेको नहीं जानता वह दूसरेको क्या जानेगा। अन्यथा सभी व्यक्ति अन्य व्यक्तिके ज्ञानसे भी अर्थका प्रत्यक्ष कर लेंगे। फलतः कोई भी पदार्थ कभी किसीको अप्रत्यक्ष नहीं रहेगा। __ शंका-जिस व्यक्तिको पदार्थकी ज्ञप्ति होती है उसके ही ज्ञानके द्वारा वह पदार्थ प्रत्यक्ष होता है, सबके ज्ञानके द्वारा सभी अर्थ प्रत्यक्ष नहीं होते, क्योंकि सभी प्रमाताओंको सभी पदार्थोंकी परिच्छित्ति नहीं होती, अतः उक्त दोष नहीं है ? समाधान—यह मन्तव्य भी युक्त नही हैं, क्योंकि यह बतायें कि अर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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