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________________ ४२ : प्रमाण-परीक्षा समवाय है, अन्य घटादिमें नहीं, तो वह सम्बन्धविशेष कथंचित्तादात्म्यके सिवाय और क्या है। अतः प्रदीपका स्वरूप (प्रकाशनरूप कर्म) प्रदीप से अभिन्न है और इस तरह अभिन्नकर्तृक भी कर्म सिद्ध है। उसी प्रकार 'जनमात्मानमात्मना जानाति'- ज्ञान अपनेको अपने द्वारा जानता है-यह भी सिद्ध हो जाता है। और चूँकि ज्ञानमें ज्ञप्ति (जानन) क्रियाका विरोध सिद्ध नहीं होता, अतएव ज्ञान स्वका भी निश्चायक है । [१९-४२] __ शंका-'पदार्थज्ञान किसी दूसरे ज्ञानके द्वारा वेद्य (जानने योग्य) है, क्योंकि वह प्रमेय है, जैसे घट आदि पदार्थ', यह अनुमान ज्ञानको स्वार्थनिश्चायक माननेमें बाधक है ? समाधान-यह शंका भी निःसार है, क्योंकि महेश्वरके अर्थज्ञानके साथ उक्त अनुमानगत हेतु अनैकान्तिक है। महेश्वरका ज्ञान किसी अन्य ज्ञानसे वेद्य नहीं है फिर भी वह प्रमेय है । __ शंका–महेश्वरका अर्थज्ञान भी दूसरे ज्ञानका प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह स्वसंवेद्य नहीं है ? समाधान-यह शंका भी यक्त नहीं है, क्यों तब प्रश्न उठता है कि महेश्वरका वह दूसरा भी ज्ञान प्रत्यक्ष है या अप्रत्यक्ष ? यदि प्रत्यक्ष है तो स्वतः प्रत्यक्ष है या अन्य ज्ञानसे? 'प्रथम पक्ष स्वीकार करने पर पहले अर्थज्ञानको भी स्वतः प्रत्यक्ष मानिये, अन्य ज्ञानको माननेकी क्या जरूरत है। यदि अन्य ज्ञानसे उसका प्रत्यक्ष कहा जाय, तो ईश्वरका वह ज्ञान भी उसका प्रत्यक्ष है या अप्रत्यक्ष ? इस प्रकार वही प्रश्न उठेंगे और कहीं भी अवस्थान न होनेसे अनवस्था दोष भी आयेगा, जिसका परिहार दुःशक्य है। यदि ईश्वरका वह अर्थज्ञानज्ञान अप्रत्यक्ष ही है, ऐसा कहा जाय तो ईश्वर सर्वज्ञ नहीं बन सकेगा, क्योंकि उसे अपने ज्ञानज्ञानका प्रत्यक्ष नहीं है। इसके अतिरिक्त अर्थज्ञानज्ञानका प्रत्यक्ष न होनेपर प्रथम अर्थज्ञान भी उसके द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होगा, क्योंकि जब अर्थज्ञानज्ञान स्वयं अप्रत्यक्ष है तो उस अप्रत्यक्ष अर्थज्ञानज्ञानके द्वारा ईश्वरके अर्थज्ञानका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है। अन्यथा किसी दूसरे व्यक्तिके ज्ञानके द्वारा भी किसी अन्यके ज्ञानका प्रत्यक्ष क्यों न हो जाय ? फलतः अनीश्वर होते हुए भी समस्त प्राणी स्वयं अप्रत्यक्षभूत सर्वविषयक ईश्वरज्ञान द्वारा समस्त पदार्थोके समूहके प्रत्यक्षज्ञाता हो जायेंगे और उस दशामें सभी प्राणी सर्वज्ञ हो जानेसे ईश्वर-अनीश्वर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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