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४० : प्रमाण-परीक्षा दीवाल आदिका दृष्टान्त साधनव्यतिरेकविकल दृष्टान्ताभास है', यह आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि दीवाल आदिको धूम, शब्द, इन्द्रिय आदिकी तरह उपचारसे ही अर्थप्रकाशक माना जाता है। यदि ऐसा न हो तो उससे होनेवाला ज्ञान व्यर्थ सिद्ध होगा। __ऊपर जो यह कहा गया है कि 'ज्ञान अपनेको अपने द्वारा जानता है, यह स्वीकार करनेसे ज्ञानमें विषयाकार और करणाकार ये दो आकार कल्पित करना पड़ेगें और उस स्थितिमें अनवस्था आदि दोष आयेंगे और यही दोष ज्ञानको स्वप्रकाशक माननेमें बाधक हैं, वह भी सम्यक नहीं है, क्योंकि ज्ञानमें उक्त दोनों आकार अनुभव सिद्ध हैं। जब ज्ञान स्वयं ज्ञान द्वारा ज्ञेय होता है तो वह कर्म (विषय) होनेसे विषयाकार है और करण होनेसे करणाकार है और ये दोनों आकार आकारवान् ज्ञानसे न सर्वथा भिन्न हैं और न सर्वथा अभिन्न, अपितु जात्यन्तर–सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद दोनोंसे अतिरिक्त तृतीय पक्ष कथंचिद्भेदाभेद रूप होनेसे आकार और आकारवान्में भेदाभेदकी अपेक्षा अनेकान्त है। कर्माकार और करणाकार ज्ञानसे कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न हैं, अत एव सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद पक्षमें दिये गये दोष स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद ) दर्शनमें नहीं आते । स्मरण रहे कि 'कथंचित्' यह पद अन्धपद नहीं है, जो अन्धेकी तरह वस्तुबोध न करा सके । ज्ञानरूपसे दोनों आकार अभिन्न हैं, यह बोघ 'कथंचिदभेद' शब्द द्वारा कराया जाता है और कर्म तथा करणरूपसे वे ज्ञानसे भिन्न हैं, यह 'कथंचिद्भेद' शब्द द्वारा दिखाया जाता है । जब केवल ज्ञानकी ओर दृष्टि रहती है तो ज्ञान-ही-ज्ञान दिखाई देता है-आकारद्वय उसमें विलीन रहते हैं, ज्ञानसे भिन्न ज्ञानात्मक कुछ प्रतीत ही नहीं होता ।
और जब ज्ञानके कर्माकार तथा करणाकार इन दो आकारोंकी ओर ही ध्यान रहता है तो वे आकार ही अलग-अलग दृष्टिगोचर होते हैं-ज्ञान उन्हीं दोनों में समाया रहता है-उन आकारोंसे भिन्न ज्ञानाकारकी प्रतीति नहीं होती।
'जिस स्वभावसे कर्माकार और करणाकारका ज्ञानसे अभेद हैं और जिस स्वभावसे भेद हैं वे दोनों स्वभाव ज्ञानसे क्या अभिन्न हैं या भिन्न, इत्यादि प्रश्न और उनके आधारसे अनवस्था दोषका प्रसंग भी उक्त प्रकारसे निरस्त हो जाता है । 'कर्म और करण दोनोंको कर्तासे भिन्न ही होना चाहिए' ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि कर्म और करण दोनों भिन्नकतककी तरह अभिन्नकर्तृक भी देखे जाते हैं। यहाँ दोनोंके उदाहरण प्रस्तुत हैं-(१)
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