SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ : प्रमाण-परीक्षा भिन्न माना जाय, तो 'ज्ञान अपनेको अपने द्वारा जानता है' यह सिद्धान्त समाप्त हो जाता है, क्योंकि पर ( भिन्न ) के द्वारा पर ( भिन्न ) का ही निश्चय हुआ है । फिर यह भी प्रश्न है कि वे दोनों आकार यदि ज्ञानके अपने स्वरूप हैं, तो ज्ञान उनका निश्चय करता है या नहीं? यदि निश्चय करता है तो यह बतायें कि वह ज्ञान उनका निश्चय अन्य एक ही आकारसे करता है या अलग-अलग दो आकारोंसे ? यदि अन्य एक आकारसे ही वह उन दोनों आकारोंका निश्चय करता है तो विरोध आता है--एक आकारसे दो विरोधी आकारोंका निश्चय अशक्य है। यदि कहा जाय कि उन दो विरोधी आकारोंका निश्चय वह अलग-अलग दो आकारोंसे करता है, तो वे दोनों अन्य आकार ज्ञानसे भिन्न हैं या अभिन्न? यह प्रश्न बना ही रहेगा और अपरिहार्य अनवस्थादोष आयेगा। अगर उन्हें ज्ञानसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न इस प्रकार दोनों रूप कहें, तो दोनों पक्षोंमें जो ऊपर दोष दिये गये हैं वे इस पक्षमें भी आते हैं ! इन तीन पक्षों (भेद, अभेद और कथंचिद्भदाभेद) के अतिरिक्त चौथा कोई पक्ष भी सम्भव नहीं है। अतः सम्यग्ज्ञान स्वव्यवसायात्मक नहीं है, मात्र अर्थव्यवसायात्मक ही है ? नैयायिकोंकी यह मान्यता भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वह अनुभवपर आधृत नहीं है। लोकका स्पष्ट अनुभव है कि ज्ञान स्वका निश्चय करता हआ ही अर्थका निश्चय करता है। इस अनुभवको मिथ्या भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें प्रत्यक्षादिसे कोई बाधा नहीं आती। 'स्वमें स्वकी क्रिया नहीं हो सकती-उसका विरोध है और यह विरोध ही उक्त अनुभवमें सबसे बड़ी बाधा है' यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि हम पूछते हैं कि 'स्व' में 'स्व'की कौन-सी क्रियाका विरोध है ? उत्पत्ति क्रियाका या ज्ञप्ति क्रियाका ? यदि उत्पत्ति क्रियाका विरोध है, तो वह रहे-वह तो हम भी मानते हैं। हम यह कहाँ कहते हैं कि 'ज्ञान अपनेको उत्पन्न करता है। स्वामी समन्तभद्रने स्पष्टतया कहा है कि 'एक स्वयं अपनेसे उत्पन्न नहीं होता। [आप्तमी. का. २४ ] . अगर कहा जाय कि ज्ञप्ति क्रियाका विरोध है, तो ज्ञानमें उसका कोई विरोध नहीं है, क्योंकि ज्ञान जानन क्रिया (ज्ञप्ति) रूपसे परिणत होता हआ ही अपने कारणकलापसे, जिसमें उपादान आत्मा और निमित्त (सहकारी) इन्द्रियादि सम्मिलित हैं, उत्पन्न होता है। जैसे प्रदीप आदिका प्रकाश प्रकाशनरूप क्रियासे परिणत होता हुआ ही अपने तेल, बत्ती आदि कारणोंसे उत्पन्न होता है। प्रदीपादिका प्रकाश अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy