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प्रस्तावना : ३७ कर अर्थका निश्चय करनेवाले पुरुषका वह अर्थज्ञान व्यभिचारी है। सो यह स्वप्नद्रष्टाका अपराध है, स्वप्नशास्त्रका नहीं।
जो असत्य स्वप्न पित्तादिके विकारसे होता है वह क्या अर्थसामान्यका व्यभिचारी है या अर्थविशेषका ? वह अर्थसामान्यका तो व्यभिचारी नहीं है, क्योंकि स्थानविशेष, कालविशेष और आकारविशेषोंमें ही व्यभिचार देखा जाता है, सब जगह, सब कालोंमें और सब प्रकारसे अर्थसामान्यका सद्भाव बना रहता है। यदि सामान्य अर्थ न हो तो विशेष अर्थों में संशय, विपर्यय, स्वप्न आदि अयथार्थज्ञान नहीं हो सकते हैं। निश्चय ही कोई ज्ञान सन्मात्रका व्यभिचारी नहीं होता, अन्यथा वह उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा। इस लिए असत्य स्वप्न भी अर्थसामान्यका निश्चायक होता है और इस लिए कोई भी ज्ञान, चाहे सत्य स्वप्नज्ञान हो, असत्य स्वप्नज्ञान हो और चाहे अन्य, सभी अर्थनिश्चायक होते हैं, अर्थक अनिश्चायक नहीं। चूँकि वह अर्थविशेषका व्यभिचारी होता है अतएव वह असत्य है, यदि ऐसा न हो तो ज्ञानोंमें सत्यासत्यकी व्यवस्था नहीं हो सकती, वह स्वार्थविशेषकी प्राप्ति तथा अप्राप्तिके निमित्तसे ही होती है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान स्वव्यवसायात्मककी तरह अर्थव्यवसायात्मक भी प्रसिद्ध होता है । [१६-३६]
___ अस्वसंवेदिज्ञान-परीक्षा नैयायिकोंका मत है कि सम्यग्ज्ञान केवल अर्थका निश्चायक है, स्वका निश्चायक नहीं है क्योंकि स्व (अपने) में स्वकी ( अपनी ) क्रिया (ज्ञप्ति) का विरोध हैं। इसका भी कारण यह है कि एक ज्ञानका एक ही आकार सम्भव है, अनेक (विषय-कर्मरूप और करणरूप दो) आकार नहीं। यहाँ यह कहना युक्त नहीं कि ज्ञान एक आकारको, जो कर्मरूप स्व है, करणरूप आकारके द्वारा जानता है, अतः उसमें विभिन्न दो आकार हो सकते है, क्योंकि तब प्रश्न उठता है कि उन दोनों (कर्माकार और करणाकार) से ज्ञान अभिन्न है या भिन्न ? यदि अभिन्न है तो ज्ञानमें भेद आ जायेगा। निश्चय ही उन दोनों भिन्नोंसे अभिन्न ज्ञान एक नहीं हो सकता-भिन्नोंसे जो अभिन्न होता है वह भिन्न अर्थात् अनेक होता है । अथवा ज्ञानके एक होनेसे आकारोंको उससे अभिन्न माननेपर उनमें भेद नहीं बन सकेगा अर्थात् आकार भी ज्ञानकी तरह एक हो जायेंगे । स्पष्ट है कि अभिन्न (एक ज्ञान) से अभिन्न आकारोंमें भेद सम्भव नहीं है । इस दोषसे मुक्ति पानेके लिए यदि दोनों आकारोंसे ज्ञानको
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