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३६ : प्रमाण-परीक्षा किसी अर्थका निश्चायक होता है, क्योंकि स्वप्नावस्थामें जिस स्थान, जिस काल और जिस आकारसे पदार्थ जाना जाता है, जागृत अवस्थामें भी वह उसी स्थान, उसी काल और उसी आकारसे निश्चित अवगत होता है। कोई सत्य स्वप्न परम्परासे अर्थनिश्चायक होता है, क्योंकि 'स्वप्नाध्याय' नामक ज्यौतिष-शास्त्रके अनुसार पदार्थका वह अवश्य प्रापक होता है। कहा भी है
'जो रात्रिके अन्तिम प्रहरमें राजा, हाथी, घोड़ा, सोना, बैल और गायको देखता है उसके कुटुम्बकी वृद्धि होती है।'
ज्योतिषशास्त्रके इस कथनके अनुसार कुटुम्बवृद्धिके अविनाभावी राजा आदिका दर्शन अर्थका निश्चायक क्यों नहीं होगा, जैसे अग्निका अविनाभावी धूमका दर्शन अग्निका निश्चायक होता है । ___ शंका-दृष्ट अर्थका निश्चायक न होनेसे स्वप्नज्ञान अर्थका निश्चायक नहीं है ?
समाधान—यह शंका संगत नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो अनुमान भी दृष्ट अर्थका व्यवसायात्मक न होनेसे अर्थका निश्चायक नहीं होगा, जैसे स्वप्नज्ञान । __शंका-अनुमान तो अनुमेय अर्थका निश्चायक है, उसे अर्थका अनिश्चायक कैसे कहा जा सकता है ? ___ समाधान-यदि ऐसा है तो स्वप्नज्ञान भी स्वप्नशास्त्र प्रतिपादित अर्थका निश्चायक क्यों नहीं माना जायेगा।
शंका-उसमें कभी व्यभिचार (अर्थक अभावमें स्वप्नज्ञान) देखा जाता है, अतः वह अर्थनिश्चायक नहीं है ?
समाधान-यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्य शास्त्र प्रतिपादित स्थानविशेष, कालविशेष और आकारविशेषकी अपेक्षा लेकर होने वाला स्वप्नज्ञान कहीं, कभी और किसी रूपसे व्यभिचारी नहीं होता। किन्तु स्थानविशेष आदिकी अपेक्षासे रहित होनेवाला स्वप्न सत्य नहीं है, वह स्वप्नाभास है। दूसरी बात यह है कि प्रतिपत्ता (स्वप्नद्रष्टा) के अपराध (गलत निर्देशन आदि) से व्यभिचार सम्भव है, उसके अनपराधसे नहीं। जैसे अधूमको धूम समझकर प्रवृत्त हुए अनुमाताका अग्निज्ञान व्यभिचारी होता है, सो यह अपराध अनुमाताका ही हैं, धूमका नहीं, यह सभी मनीषी बतलाते हैं। उसी प्रकार अस्वप्न (स्वप्नाभास) को स्वप्न समझ
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