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________________ प्रस्तावना : ३५ योग्य ही नहीं है। उसका स्वरूप ही सकल विचारातिक्रान्त है, अन्य स्वरूप उसका नहीं हैं, नीरूपता ही उसका लक्षण है; यह कथन भी अज्ञानतापूर्ण ही है; क्योंकि अविद्याको उक्त प्रकारका मानने पर किसीके द्वारा किसी भी प्रकारसे प्रतिभास न होनेसे उसका कथन ही नहीं किया जा सकता। और यदि उसका प्रतिभास होता है तब वह नीरूप कैसे ? जो जिस रूपसे प्रतिभासित होता है वही उसका स्वरूप है। तथा यह बतायें कि वह विचारातिक्रान्तरूपसे विचारका विषय है या विचारका विषय नहीं है ? प्रथम पक्ष स्वीकार करनेपर सकलविचारातिक्रान्तरूपसे विचारानतिक्रान्त ( विचारका विषय ) होनेसे विरोध प्राप्त होता है। अविद्या जब सकलविचारातिक्रान्त है तो वह विचारका विषय कैसे हो सकती है-दोनों बातें विरुद्ध हैं। द्वितीय पक्ष मानने पर उसे 'सकल विचारातिक्रान्त' भी सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि अविद्याकी विचारातिक्रान्तता किसी तरह सिद्ध करनेपर उसमें सर्वथा एकानेकादिरूपता भी उसी तरह सिद्ध होगी। अतः अविद्याको सत्स्वभाव ही मानना चाहिए, जैसे विद्याको सत्स्वभाव माना जाता है। फलतः विद्या और अविद्याके द्वतकी सिद्धि होनेसे अतरूप परमब्रह्मकी सिद्धि किस अनुमानसे होगी ? अर्थात् किसी भी अनुमानसे उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। उपनिषद्वाक्यसे भी उसकी सिद्धि सम्भव नहीं, यह पहले ही कहा जा चुका है। स्पष्ट है कि 'यह सब निश्चय ही ब्रह्म है' [ ] इत्यादि उपनिषद्वाक्योंको ब्रह्मसे भिन्न माननेपर द्वतका प्रसंग आता है और अभिन्न माननेपर साध्य-साधकभाव नहीं बनेगा। उन्हें अविद्यात्मक कहनेपर भी पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आता है। अतः परमपुरुषाद्वतकी न स्वतः सिद्धि होती है और न परसे, जिससे 'सम्यग्ज्ञान स्वनिश्चायक ही है, अर्थनिश्चायक नहीं, क्योंकि अर्थ नहीं है' यह कथन प्रामाणिक होता। तात्पर्य यह कि पुरुषात सिद्ध नहीं हैं, जिससे बाह्य अर्थका अभाव होता। अतः अपने तथा बाह्य अर्थका व्यवसायात्मक सम्यग्ज्ञान प्रमाण है। [१५-३४] शंका-जो स्वप्नज्ञान होता है वह स्वव्यवसायात्मक ही होता है, अर्थव्यवसायात्मक नहीं ? समाधान-उक्त शंका युक्त नहीं है, क्योंकि स्वप्नज्ञान भी साक्षात् अथवा परम्परासे अर्थका व्यवसायात्मक होता है। स्वप्न दो प्रकारका है-१ सत्य और २ असत्य । सत्य स्वप्न किसी देवके निमित्तसे अथवा स्वप्नद्रष्टाके धर्म एवं अधर्मके निमित्तसे होता है और वह स्वप्न साक्षात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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