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३० : प्रमाण-परीक्षा लक्षण सुगतके प्रत्यक्षद्वारा ज्ञेय है वही अन्य संसारीजनोंके प्रत्यक्षका भी ज्ञेय है और इस तरह सारे संसारी सूगत और सुगत सारे संसारी हो जायेंगे । फलतः संसारमें कोई सुगत न रहेगा। इस महान् दोषसे बचनेके लिए यदि नीलस्वलक्षणको भिन्न-भिन्न स्वभावोंसे सुगतके प्रत्यक्ष और संसारीजनोंके प्रत्यक्षका ज्ञेय माना जाय, तो नीलस्वलक्षणमें स्वभावभेद अनिवार्य है। यह कहा नहीं जा सकता कि नीलस्वलक्षणमें जो नाना ज्ञेयस्वभाव हैं वे कल्पित हैं, क्योंकि उन्हें कल्पित मानने पर नीलस्वलक्षण भी कल्पित (मिथ्या) होनेसे न बचेगा, जबकि उसे वास्तविकपरमार्थसत् माना गया है।
विज्ञानाद्वतवादी बौद्धोंका मत है कि 'स्वलक्षणमें जो दर्शनविषयता है वह दर्शनको अपने आकारका अर्पण है और वह अर्पण अस्वाकारार्पणव्यावृत्तिरूप है । वह अनेक द्रष्टाओंकी अपेक्षासे अनेक सिद्ध होता ही है । उसे अनेक न माननेपर वह (स्वलक्षण) अनेक द्रष्टाओंके दर्शन (प्रत्यक्ष) का विषय नहीं हो सकेगा। वास्तवमें दर्शन दृश्य (बाह्य अर्थ) को विषय करता ही नहीं है, क्योंकि सभी ज्ञाता (ज्ञान) अपने स्वरूपमात्रमें लीन रहते हैं । उपचारसे ही उन्हें बाह्यार्थका विषय करनेवाला व्यवहृत किया जाता है', यह मान्यता भी सम्यक नहीं है, क्योंकि दर्शनको अपने आकार का जो अर्पण है उसके विषयमें भी पूर्ववत् प्रश्न उठता है। बतलाइये, वह स्वलक्षण जिस स्वभावसे सुगतके दर्शनके लिए अपना आकार अर्पित करता है क्या उसी स्वभावसे अन्य लोगोंके दर्शनके लिए भी वह अपना आकार अर्पित करता है या अन्य स्वभावसे ? प्रथमपक्षमें सुगतके दर्शन और अन्य लोगोंके दर्शनमें कोई भेद न रहेगा,- दोनों एक हो जायेंगे । फलतः सभी लोग सुगत और सुगत सभी लोग हो जायेंगे। द्वितीय पक्षमें स्वलक्षणमें स्वभावभेद अनिवार्य है।
यदि कहा जाय कि स्वलक्षणरूप वस्तुका दर्शनके लिए अपना आकार अर्पण करना भी वास्तविक नहीं है, क्योंकि सभी ज्ञान स्वरूपको ही विषय करते-जानते हैं, तो यह कथन भी उपपन्न नहीं होता, क्योंकि जानोंको बाह्यार्थका प्रकाशक न माननेपर उनकी व्यर्थता सिद्ध होगी। स्पष्ट है कि ज्ञानकी आवश्यकता ज्ञेयको प्रकाशित करने-जाननेके लिए होती है, जैसे प्रकाशके लिए दीपक आवश्यक होता है। स्वरूपको जाननेके लिए ज्ञानकी आवश्यकता नहीं होती-वह तो स्वप्रकाशक ही होता है। दीपकको प्रकाशित करनेके लिए दीपककी आवश्यकता नहीं होती। अतः ज्ञानोंको बाह्यार्थज्ञापक न मानने पर उनकी अनावश्यकता
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