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प्रस्तावना : ३१ सिद्ध होगी ही। इसके अतिरिक्त निविषयक स्वप्नादि ज्ञान भी सत्य माने जायेंगे, क्योंकि स्वरूपका प्रकाशन तो वे भी करते हैं ।
इस तरह प्रत्यक्षज्ञान (प्रत्यक्षचतुष्टय) प्रत्यक्षसे अव्यवसायात्मक सिद्ध नहीं होता। अनुमानसे भी वह अव्यवसायात्मक अनुमित नहीं होता, क्योंकि गायके दर्शनके समय जैसे अश्वका विकल्प व्यवसाय होता है, उसी तरह गायका दर्शन भी व्यवसायात्मक होता है। यदि गायका दर्शन व्यवसायात्मक न हो, तो उत्तरकालमें उससे गायका स्मरण, जो व्यवसायात्मक है, कदापि नहीं हो सकता। अतः प्रत्यक्षज्ञान अव्यव सायात्मक नहीं है । जैसा कि निम्न अनुमानसे सिद्ध होता हैअनुमानसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी सिद्धि __ 'गायका प्रत्यक्षज्ञान व्यवसायात्मक होता है, क्योंकि उत्तर कालमें उसका स्मरण-व्यवसायात्मकज्ञान होता है। जो व्यवसायात्मक नहीं होता वह उत्तर कालमें स्मरणको उत्पन्न नहीं करता, जैसे स्वयं बौद्धों द्वारा स्वीकृत स्वर्गप्रापणशक्ति आदिका दर्शन और गायका प्रत्यक्षज्ञान करनेवालेको उत्तर कालमें गायका स्मरण होता है, इसलिए प्रत्यक्षज्ञान व्यवसायात्मक है ।' यह केवलव्यतिरेकि अनुमान है।
इस प्रकार सम्यग्ज्ञानको स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध करनेके लिए जो 'सम्यक्ज्ञानपना' हेतु दिया गया है वह व्यभिचारी-अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है, क्योंकि कोई भी सम्यग्ज्ञान ऐसा नहीं है, जो अव्यवसायात्मक हो, जैसा कि ऊपर प्रमाण द्वारा सिद्ध किया जा चुका है । (१३-२७)
विज्ञानाद्वैतवाद-परीक्षा यहाँ विज्ञानाद्वैतवादियोंका कथन है कि उक्त हेतु व्यभिचारी न होनेपर भी अप्रयोजक है-अपने साध्य (स्वार्थव्यवसायात्मकपना) का साधक नहीं है, क्योंकि सभी सम्यग्ज्ञान अर्थनिश्चयके बिना ही स्वको जानने मात्रसे सम्यग्ज्ञान हैं । यह निम्न अनुमानसे भी सिद्ध है____ 'विवादापन्न सम्यग्ज्ञान अर्थव्यवसायात्मक नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान है अथवा स्वव्यवसायात्मक है। जो ज्ञान है या स्वव्यवसायात्मक है वह अर्थव्यवसायात्मक नहीं है, जैसे स्वप्नादिज्ञान, और सम्यग्ज्ञान अथवा स्वव्यवसायात्मक जैनों द्वारा स्वीकृत प्रकृत ज्ञान है, इसलिए वह अर्थव्यवसायात्मक नहीं है।'
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