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२८ : प्रमाण-परीक्षा देखा जाता है । अतः अथित्व भी संस्कार एवं स्मरणका नियामक नहीं है।
इस प्रकार इन्द्रियबुद्धिको निरंश मानने वालोंके यहाँ अभ्यासादिके बलपर नीलादिमें संस्कार एवं स्मरण सम्भव नहीं हैं। किन्तु वाह्य (घटादि ज्ञेय) और आभ्यन्तर ( ज्ञान ) दोनों प्रकारकी वस्तुओंको अनेकान्तात्मक स्वीकार करने वाले स्याद्वादियोंके यहाँ संस्कार, स्मरण, आदि सभी सम्भव हैं। उन्होंने एक ज्ञानको सर्वथा व्यवसाय, जिसे अवाय कहा गया है और सर्वथा अव्यवसाय, जिसे अनवाय (अवग्रह-ईहा) प्रतिपादित किया है, रूप नहीं माना। इसी तरह उसे सर्वथा संस्कार, जिसे धारणा निरूपित किया है और सर्वथा असंस्कार, जिसे धारणेतर (अवग्रह-ईहा-अवायात्मक) बतलाया है, स्वीकार नहीं किया तथा उसे सर्वथा स्मरण और सर्वथा अस्मरण (प्रत्यक्षादि ) रूप भी वर्णित नहीं किया । अर्थात् स्याद्वाददर्शनमें ज्ञानको कथंचित् एक और कथंचित् अनेक दोनों रूप माना गया है । इसी प्रकार ज्ञेय वस्तु भी कथंचित् एक और कथंचित् अनेक दोनों रूप प्रतिपादित है। अतः उपर्युक्त संस्कार, स्मरण आदिके अभावका प्रसङ्ग स्याद्वाददर्शनमें नहीं आता। तात्पर्य यह कि आर्हत दर्शनमें ज्ञानमें कथंचित् भेद भी माना गया है। जो व्यवसायज्ञान है उसे अवायज्ञान, जो अव्यवसायज्ञान है उसे अनवाय-अवग्रह-ईहा ज्ञान, जो संस्कारज्ञान है उसे धारणाज्ञान, जो असंस्कारज्ञान है उसे अधारणाज्ञान-अवग्रह-ईहा-अवायज्ञान, जो स्मरणज्ञान है उसे स्मृति और जो अस्मरणज्ञान है उसे अवग्रह ईहा-अवाय-धारणाज्ञान कहा गया है। इस प्रकार जैनोंने बौद्धोंकी तरह एक निरंश ज्ञान स्वीकार नहीं किया है। पर बौद्धोंने निर्विकल्पक दर्शनको निरंश (एक) माना है, अतः उसमें अभ्यासादि और अनभ्यासादि दोनों न हो सकनेसे उसे अभ्यासादिकी अपेक्षा नीलादिमें व्यवसायका उत्पादक और अनभ्यासादिकी अपेक्षा क्षणिकतादिमें व्यवसायका अनुत्पादक दोनों नहीं माना जा सकता। ___ यहाँ बौद्धोंका पुनः कहना है कि दर्शनको भी हमने व्यावृत्तिभेदसे भिन्न (अनेक) स्वीकार किया है, अतः उक्त दोष नहीं है । वह इस प्रकार से है-अनीलपनाकी व्यावृत्ति नीलपना है और अक्षणिकपनाकी व्यावृत्ति क्षणिकपना है। ध्यातव्य है कि अनीलव्यावत्ति (नीलपना) में 'यह नील है'ऐसा नीलका व्यवसाय नीलकी वासनाके उद्भवसे होता है। किन्तु अक्षणिकव्यावृत्ति (क्षणिकपना) में क्षणिककी वासनाका उद्भव न होनेसे 'यह क्षणिक है' ऐसा क्षणिकका व्यवसाय नहीं होता। और ये दोनों
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