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प्रस्तावना : २७ की जिज्ञासा या अभिलाषा) इन चारका नीलादिमें सद्भाव होनेसे उनमें निर्विकल्पक ( अनिश्चयात्मक ) दर्शनसे भी संस्कार तथा स्मरण दोनों सम्भव हैं, क्षणिकता आदिमें अभ्यासादिके न होनेसे उनमें न संस्कार सम्भव है और न स्मरण । इसके अतिरिक्त प्रत्यक्षको निश्चयात्मक मानने पर भी अभ्यासादिके होनेसे ही उसमें संस्कार और स्मरण सम्भव हैं, उनके अभावमें नहीं। अतः प्रत्यक्षको व्यवसायात्मक स्वीकार करने वालोंको भी अभ्यासादि चारों नियससे मानने योग्य हैं, तो यह मन्तव्य भी सम्यक नहीं है, क्योंकि उक्त अभ्यासादि चारों नीलादिकी तरह क्षणिकता आदिमें भी सम्भव हैं, अतः संस्कार और स्मरण दोनों उनमें भी हो सकते हैं।
फिर प्रश्न है कि ये अभ्यासादि क्या हैं ? यदि 'बार-बार दर्शनका होना अभ्यास है', तो वह नीलादिकी तरह क्षणिकता आदिमें भी पाया जाता है। और यदि 'पुनः पुनः विकल्पको उत्पन्न करना अभ्यास' है, तो वह स्याद्वादियोंके लिए असिद्ध है, क्योंकि मूल विवाद इसी बातमें है कि जो (दर्शन) स्वयं निर्विकल्प (अनिश्चयात्मक) है वह विकल्प (निश्चय) को कैसे उत्पन्न कर सकता है।
क्षणिक और अक्षणिकका विचार होनेपर क्षणिक-प्रकरण भी क्षणिकता आदिमें विद्यमान रहता है।
बुद्धिपाटवका अर्थ यदि 'इन्द्रियबुद्धिकी पटुता' है, तो वह नीलादिकी तरह क्षणिकता आदिमें भी मौजूद है, क्योंकि दर्शन (इन्द्रियबुद्धि) को बौद्धों द्वारा निरंश माना गया है। यह सम्भव नहीं कि नीलादिमें इन्द्रियबुद्धिकी पटुता हो और क्षणिकता आदिमें अपटुता, क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर इन्द्रियबुद्धिमें अंशभेद-पटुता-अपटुता दो अंश मानना पड़ेंगे। किन्तु इन्द्रियबुद्धिके निरंश होनेसे यह सम्भव नहीं है । 'वासनारूप कर्मके कारण इन्द्रियबुद्धिमें पटुता और अपटुता दोनों हो सकते हैं, ऐसा विचार भी युक्ति-युक्त नहीं है, क्योंकि वासनारूप कर्मका सद्भाव और असद्भाव दोनों विरुद्ध धर्म होनेसे वे एक निरंश इन्द्रियबुद्धिमें असम्भव हैं। ___ अब रह जाता है अथित्व; सो वह यदि जिज्ञासितत्व (प्रतिपत्ताकी जिज्ञासा) रूप है, तो वह नीलादिकी तरह ही क्षणिकता आदिमें भी है।
और यदि वह ( अथित्व ) अभिलषितत्त्व ( प्रतिपत्ताकी अभिलाषा) रूप विवक्षित है, तो वह व्यवसायका अनिवार्य कारण नहीं हैं, क्योंकि किसी उदासीन प्रतिपत्ताको अनचाही वस्तुमें भी स्मरण (व्यवसाय) होता हुआ
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