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२६ : प्रमाण-परीक्षा भाव नहीं है और इस लिए दर्शन तथा आरोप ( व्यवसाय-निश्चय ) में विरोध नहीं है।
बौद्ध पुनः कहते हैं कि 'दर्शनको निश्चयात्मक सिद्ध करनेपर प्रत्यक्षविरोध है, क्योंकि जिस समय समस्त विकल्प रुक जाते हैं उस अवस्थामें हो नीलरूपादिदर्शन होता है और जो अनिश्चयात्मक अनुभवमें आता है। जैसा कि कहा है
जब प्रतिपत्ता समस्त चिन्ताओं ( विकल्पों ) को रोककर स्थिर मनसे स्थित होता हुआ चक्षुद्वारा रूपको देखता है तब उसके उस निविल्पक रूपदर्शनको इन्द्रियप्रत्यक्ष कहा जाता है।
प्रत्यक्षविरोधके अतिरिक्त अनुमानविरोध भी है, क्योंकि जब चित्तको अचंचल अवस्था होती है उस समय चक्षु आदि इन्द्रियोंसे नीलादिवस्तुका ज्ञान करनेपर कोई कल्पना नहीं होती। उस समय यदि कल्पना हो तो पूनः उसकी स्मृति आनी चाहिए, जैसे विकल्पके बाद होने वाली कल्पनाइसे भी कहा है
जब कोई मझे विकल्प होता है तो तदनुरूप कल्पना होती है। किन्तु निर्विकल्प अवस्था में इन्द्रियसे अर्थ ( नीलादि ) का ज्ञान करनेपर कल्पनाका वेदन नहीं होता।
धर्मकीर्तिका यह प्रतिपादन विचारपूर्ण नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षसे किविकल्पक दर्शन प्रसिद्ध नहीं है। स्पष्ट है कि जिस समय अश्वका विकल्प ( स्मरण ) और सामने खड़ी गायका दर्शन होता है वह अवस्था ही समस्त-विकल्प-रहित अवस्था है। किन्तु उस समय जो गायका दर्शन होता है वह अनिश्चयात्मक नहीं है, अन्यथा उससे निश्चयात्मक स्मरणका उद्भव नहीं हो सकता, क्योंकि निश्चयात्मक स्मरणका कारण निश्चयात्मक संस्कार है-उसका कारण अनिश्चयात्मक दर्शन नहीं हो सकता, जैसे क्षणिकता आदिमें दर्शन व्यवसायजनक नहीं है । यथार्थमें निश्चयात्मक दर्शनसे ही संस्कार और स्मरण सम्भव हैं, अनिश्चयात्मकसे नहीं । कहा भी है
देखे अथवा देखके समान अर्थ में निश्चयात्मक दर्शनसे संस्कार तथा स्मरण होते हैं, अनिश्चयात्मक दर्शनसे न संस्कार सम्भव है और न स्मृति, क्षणिकादिकी तरह ।
यदि यह माना जाय कि 'अभ्यास ( दर्शनका बार-बार होना ), प्रकरण ( प्रसंग); बुद्धिपाटव (इन्द्रियकुशलता) और अर्थित्व (प्रतिपत्ता
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