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________________ प्रस्तावना : २५ यही ( अर्थोत्पत्ति और अर्थाकारता) सम्यग्ज्ञानका लक्षण है, व्यवसायात्मकता नहीं। अतः उक्त चारों प्रत्यक्षज्ञान अव्यवसायात्मक होनेपर भी सम्यग्ज्ञान हैं और इस लिए उनके साथ 'सम्यग्ज्ञानपना' हेतु व्यभिचारी उक्त कथन भी युक्तिसे सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उक्त प्रकारसे नोलादिकी तरह क्षणिकता आदिमें भी दर्शनको स्वविषयोपदर्शन करनेसे रोका नहीं जासकता । यहाँ यह समाधान उपस्थित किया जासकता है कि 'जो अयोगी ( अल्पज्ञ ) ज्ञाता हैं उन्हें क्षणिकता आदिमें अक्षणिकता आदिका भ्रम होनेसे उनका दर्शन नहीं होता। परन्तु जो योगी ज्ञाता हैं उन्हें तो उनमें अक्षणिकता आदिका भ्रम न होनेसे क्षणिकता आदिमें क्षणिकता आदिका दर्शन होता ही है', यह समाधान भी बुद्धिमानोंको ग्राह्य नहीं हो सकता, क्योकि अयोगियोंको नील, धवल आदिमें भी अनील, अधवल आदिका भ्रम हो सकता है और तब उन्हें क्षणिकता आदिकी तरह नीलादिका भी दर्शन नहीं हो सकेगा । अन्यथा नीलादिवस्तूमें नीलादित्व और क्षणिकतादि विरुद्ध धर्मोंका समावेश होनेसे दर्शन में भेद (नीलादिको ग्रहण करनेसे ग्राहकत्व और क्षणिकतादिको ग्रहण न करनेसे अग्राहकत्व ) क्यों नहीं होगा ? जब दर्शन एक और भेदरहित है, तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह एक जगह ( नीलादिमें ) भ्रमाक्रान्त है और दूसरी जगह (क्षणिकतादिमें ) भ्रमाक्रान्त नहीं है । अतः युक्तिसे सिद्ध करेंगे कि 'दर्शन नीलादिवस्तुका निश्चायक है, क्योंकि विपरीतसमारोपके कारण विरोधको लिए हुए है, जो विपरीतसमारोपके कारण विरोधको लिए हुए होता है वह निश्चयात्मक होता है, जैसे अनुमेय अर्थ (क्षणिकतादि) में अनुमानज्ञान, और विपरीत समारोपके कारण विरोधको लिए हए दर्शन नीलादिमें है' । इस प्रकार दर्शन व्यवसायात्मक ही सिद्ध होता है । .. 'निश्चयका जनक होने से दर्शन नीलादिमें विपरीतसमारोपविरोधी है, न कि स्वयं निश्चयात्मक होनेसे, अतः उक्त हेतुका साध्यके साथ अविनाभाव अनिश्चित (असिद्ध) है', ऐसा विचार सम्यक् नहीं है, क्योंकि योगिप्रत्यक्षमें भी यह विपरीतसमारोप प्रसक्त होगा, कारण कि उसका योगिप्रत्यक्ष के साथ विरोध नहीं है। हम तो योगिप्रत्यक्षको भी निश्चयात्मक स्वीकार करते हैं, अतः योगिप्रत्यक्षके साथ विपरीतसमारोपका विरोध सिद्ध ही है। इसके अतिरिक्त निश्चयके जनक दर्शनके साथ समारोपका विरोध बतलानेपर स्वमतविरोध होता है, क्योंकि धर्मकीतिका मत है कि आरोप, जो निश्चय का हो नाम है, और मनःप्रत्यक्ष दोनोंमें बा ध्य-बाधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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