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________________ २४ : प्रमाण-परीक्षा नहीं जानता, और कोई ज्ञान दृश्य तथा सामान्य दोनोंको जानता नहीं'। इस तरह दृश्य तथा सामान्य दोनोंके एकत्वका निश्चय किसी ज्ञानसे सिद्ध नहीं होता। अतः व्यवसाय वस्तुका दर्शन नहीं करता। और न दर्शन भी उसे उत्पन्न करनेसे वस्तुका दर्शन करता है। उक्त चार प्रत्यक्षोंमें योगिप्रत्यक्ष और स्वसंवेदन ये दो प्रत्यक्ष अवश्य समस्त विकल्पोंसे रहित होने तथा स्वरूपावगति करनेसे किसी तरह वस्तुका दर्शन करने वाले हो सकते थे, किन्तु वे वस्तुमें विकल्प ( व्यवसाय ) को उत्पन्न न करनेके कारण वस्तुका दर्शन नहीं कर सकते । एक बात और है। दर्शनके बाद जो विकल्यज्ञान उत्पन्न होता है उसकी सिद्धि स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे स्वीकार करनेपर यह प्रश्न होता है कि उस विकल्पज्ञानका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रमाण है या अप्रमाण ? यदि प्रमाण है, तो कैसे ? यदि कहा जाय कि वह स्वरूपका दर्शन करनेसे ही प्रमाण है, तो स्वर्गप्रापकताशक्ति आदिमें भी उसे प्रमाण माना जाना चाहिए। यदि कहें कि विकल्पज्ञानके स्वसंवेदन प्रत्यक्षका स्वसंवेदनाकार ही प्रमाण है, क्योंकि वह उसी में विकल्पको उत्पन्न करता है, अन्यमें नहीं, तो उस विकल्पके स्वसंवेदनका भी अन्य विकल्पको उत्पन्न करनेसे स्वरूपदर्शन होना चाहिए और इस तरह विकल्पकी उत्पत्ति तथा स्वरूपदर्शनकी और और कल्पना होनेपर अनवस्थादोष आता है। ऐसी स्थितिमें (अनवस्थादोषसे ग्रस्त होने के कारण) प्रथम विकल्पका जो स्वसंवेदन है वह प्रमाण नहीं हो सकता। यदि विकल्पज्ञानका स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है, तो उसके प्रमाण न होनेसे उससे व्यवसाय सिद्ध ( उत्पन्न ) नहीं हो सकता और उसके सिद्ध न होने पर 'व्यवसायको उत्पन्न करनेसे दर्शन अपने विषयका दर्शन करता है' यह कथन असिद्ध हो जाता है। उसके असिद्ध होने पर वह न प्रवर्तक हो सकता है और न अर्थप्रापक। तथा अर्थप्रापक न होने पर वह अविसंवादो भी नहीं हो सकता। अविसंवादी न होनेपर उक्त चारों स्वसंवेदन, इन्द्रिय, मानस और योगिप्रत्यक्ष सम्यगज्ञान नहीं हो सकते । अतः उनके साथ 'सम्यग्ज्ञानपना' हेतु व्यभिचारी नहीं है। बौद्ध पूनः कहते हैं कि 'दर्शन अपने विषयका दर्शन करता है ( उपदर्शक होता है ), इसका तात्पर्य है कि दर्शनका अर्थसे उत्पन्न होना और अर्थके आकार होना। और ये दोनों (अर्थोत्पत्ति तथा अर्थाकारता) उक्त चारों प्रत्यक्षोंमें उनके अव्यवसायात्मक होनेपर भी विद्यमान हैं। उनके पद्भावसे ही सभी प्रत्यक्ष प्रवर्तक, अर्थप्रापक और अविसंवादी हैं और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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