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________________ प्रस्तावना : २३ यहाँ बौद्धका पुनः कहना है कि 'विकल्प ( व्यवसाय ) सामान्यका निश्चय करता है, जो दर्शनका विषय है, अतः दर्शन विकल्पका जनक माना जाता है और इसलिए वह ( दर्शन ) अपने विषय (नील, धवल आदि ) का उपदर्शक है', यह कथन भी सम्यक् नहीं है, क्योंकि जिस सामान्यको दर्शनका विषय कहा गया है वह अन्यापोह ( अन्यव्यावृत्ति ) रूप होनेसे अवस्तु-मिथ्या है। उसे (अवस्तुको) विषय करनेवाले विकल्प ( व्यवसाय ) के जनक दर्शनको वस्तु ( नीलादि ) का उपदर्शक मानना स्पष्टतः विरुद्ध है। यदि यह माना जाय कि 'दृश्य (नीलादिस्वलक्षण ) और सामान्य ( अन्यापोह-विकल्पविषय )में एकपनेका आरोप हो जानेसे व्यवसाय वस्तुका उपदर्शक है, तो यह मान्यता भी सम्यक नहीं है, क्योंकि दृश्य और सामान्य दोनोंके विभिन्न ( वस्तु और अवस्तु रूप ) होनेके कारण उनमें एकपने का आरोप असम्भव है। फिर यह प्रश्न है कि 'उनमें एकपना हो जाता है' यह कौन ज्ञान जानता है ? दर्शन या उसके पश्चात् होनेवाला व्यवसाय (विकल्प ) या अन्य कोई ज्ञान ? दर्शन ( निर्विकल्प प्रत्यक्ष ) तो उसे नहीं जान सकता, क्योंकि वह केवल दृश्यको जानता है, विकल्पके विषयभूत सामान्यको नहीं। और जब वह दोनोंको नहीं जानता, तो उन दोनोंमें रहनेवाले एकपनेको वह कैसे जान सकता है। उसके पीछे होनेवाला व्यवसाय भी दोनोंके एकत्वको नहीं जान सकता, क्योंकि वह मात्र सामान्यको विषय करता है, दृश्यको नहीं। और दोनोंको विषय न करने के कारण वह भी उनके एकत्वको नहीं जान सकता। दोनोंको जानने वाला यदि अन्य ज्ञान है, तो वह या तो दर्शन होगा या विकल्प, क्योंकि इन दो ज्ञानराशियोंके अतिरिक्त अन्य तीसरी ज्ञानराशि बौद्धों द्वारा स्वीकृत नहीं है । और ये दोनों ज्ञान दृश्य और सामान्यमें से केवल एक-एकको (दर्शन दश्यको और विकल्प सामान्यको) जानने तथा दोनोंको न जाननेके कारण दोनों (दृश्य और सामान्य)के एकपनेको नहीं जान सकते । अतः दोनोंको विषय करने वाला कोई ज्ञान न होनेसे दोनोंके एकत्वका अध्यवसाय नहीं हो सकता। और यह सम्भव नहीं कि कोई ज्ञान दोनोंको विषय न करनेपर भी दोनोंके एकत्वका अध्यवसाय कर ले। अत एव हम सिद्ध करेंगे कि 'कोई ज्ञान दृश्य और सामान्य दोनोंके एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता, क्योंकि वह दोनोंको नहीं जानता, जो दोनोंको नहीं जानता वह उनके एकत्वका अध्यवसाय नहीं कर सकता, जैसे रसज्ञान रूप और स्पर्श दोनोंको न जानने के कारण उनके एकत्वको भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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