SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ : प्रमाण-परीक्षा दर्शन ( साक्षात्कार ) नहीं करते, क्योंकि वे अव्यवसायात्मक हैं, जो ज्ञान अव्यवसायात्मक होता है वह अपने विषयका दर्शन नहीं करता, जैसे मार्गमें जाते हुए तृणादिका स्पर्श होनेपर होनेवाला तृणादिका अनध्यवसाय (अनिश्चयात्मक) ज्ञान (मिथ्याज्ञान) और बौद्धों द्वारा स्वीकृत उक्त चारों प्रत्यक्ष अव्यवसायात्मक हैं।' यह व्यापकानुपलब्धिहेतुजनित सम्यक अनुमान है। यहाँ व्यवसायात्मकता व्यापक है और स्वविषयदर्शन व्याप्य है। व्यापक-व्यवसायात्मकताके अभावमें उसके व्याप्य-स्वविषयदर्शनका सद्भाव किसी भी ज्ञान में प्रतीत नहीं होता । अतः व्यापक (व्यवसायात्मकता) की अनुपलब्धिसे उक्त चारों प्रत्यक्षोंमें व्याप्य (स्वविषयदर्शन) का अभाव सिद्ध होता है। __यदि कहा जाय कि 'व्यवसायात्मकताके साथ स्वविषयदर्शनकी व्याप्ति ( अविनाभाव ) सिद्ध नहीं है, क्योंकि स्वविषयदर्शनकी व्याप्ति व्यवसायजनकताके साथ है। जो दर्शन व्यवसायजनक है वही स्वविषयका उपदर्शक है । नील, धवल आदि स्वलक्षणवस्तुमें दर्शन व्यवसायका जनक है, अतः वह उन (नीलादि) का दर्शन करता है। किन्तु क्षणिकता, स्वर्गप्रापकताशक्ति आदिमें वह व्यवसायको उत्पन्न नहीं करता, इसलिए वह उनका दर्शन नहीं करता। मार्गमें जाते हुए होनेवाला तृणादिका अनध्यवसायज्ञान भी इसी ( तृणादिमें व्यवसायको उत्पन्न न करनेके ) कारण अपने ( तृणादि ) विषयका दर्शन नहीं करता, क्योंकि उसमें मिथ्याज्ञानका व्यवहार प्रसिद्ध है। अन्यथा उसे अनध्यवसाय नहीं कहा जा सकता है ।' यह कथन विचार करने पर यक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि व्यवसायको दर्शनजन्य माननेपर यह प्रश्न उठता है कि वह ( व्यवसाय ) दर्शनके विषयका उपदर्शक है या नहीं ? यदि उपदर्शक है तो वही उन नील, धवल आदिमें प्रवर्तक एवं प्रापक होगा, क्योंकि वह संवादी है, जैसे सम्यकज्ञान । व्यवसायका जनक दर्शन न प्रवर्तक सम्भव है और न प्रापक; जैसे सन्निकर्ष आदि । यदि व्यवसाय दर्शनके विषयका उपदर्शक नहीं है, तो दर्शन भी व्यवसायको उत्पन्न करने से ही अपने विषयका उपदर्शक कैसे हो सकता? अन्यथा संशय एवं विपर्ययका जनक दर्शन भी अपने विषयका उपदर्शक होगा। तात्पर्य यह कि दर्शन ( प्रत्यक्ष ) को अव्यवसायात्मक माननेपर वह व्यवसाय का जनक नहीं हो सकता। यह विचारनेकी बात है कि जो स्वयं व्यवसायरूप नहीं है वह व्यवसायको उत्पन्न कैसे कर सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy