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प्रस्तावना : २१
सम्यग्ज्ञानवादियोंको सिद्ध ( मान्य ) है, क्योंकि वह साध्यधर्मी-पक्ष ( सम्यग्ज्ञान ) में विद्यमान रहता है।
यहाँ बौद्धोंका कहना है कि 'स्वसंवेदन, इन्द्रिय, मानस और योगिप्रत्यक्षके भेदसे प्रत्यक्ष चार प्रकारका अभिमत है और चारों प्रत्यक्ष सम्यग्ज्ञान हैं । परन्तु वे अव्यवसायात्मक (अनिश्चयात्मक) स्वीकृत हैं। अतः उक्त 'सम्यग्ज्ञानपना' हेतु उनके साथ व्यभिचारी है।'
बौद्धोंका यह कथन उनके अभीष्टका साधक नहीं है, क्योंकि उक्त प्रत्यक्षोंको अव्यवसायात्मक माननेपर उनमें सम्यग्ज्ञानपना नहीं बन सकता।
स्पष्ट है कि सम्यग्ज्ञानपनाकी व्याप्ति ( अविनाभाव ) अविसंवादीपनाके साथ है, क्योंकि जो अविसंवादी नहीं होता वह सम्यग्ज्ञान नहीं होता। अविसंवादोपनाकी भी व्याप्ति अर्थप्राप्तिके साथ है। जो ज्ञान अर्थप्राप्ति कराता है वही अविसंवादी होता है, जो अर्थप्राप्ति नहीं कराता वह अविसंवादी नहीं होता, जैसे निर्विषयज्ञान-भ्रान्त ज्ञान । वह अर्थप्राप्ति भी प्रवृत्तिके साथ अविनाभूत है। जो ज्ञान प्रवृत्ति-सक्षम है वही अर्थप्रापक होता है, जो प्रवर्तक नहीं है वह अर्थप्रापक नहीं होता, जैसे उक्त निविषय ज्ञान । प्रवृत्तिका भी अविनाभाव स्वविषयोपदर्शनके साथ है, क्योंकि जो ज्ञान अपने विषयका उपदर्शन ( प्रकाशन ) करता है उसी में प्रवर्तकका व्यवहार होता है। सभी जानते हैं कि ज्ञान पुरुषको उसके हाथ पकड़ कर प्रवृत्त नहीं कराता, अपितु अपने विषयको दिखलानेसे वह प्रवर्तक कहा जाता है और तभी उसे अर्थप्रापक तथा अर्थप्रापक होनेसे अविसंवादी कहते हैं और अविसंवादी होनेसे सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, इससे विपरीत मिथ्याज्ञान है, जैसे संशय आदि, यह बौद्ध विद्वान् धर्मोत्तरकी मान्यता है।
पर वह युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उक्त चारों प्रत्यक्ष यतः अव्यवसा. यात्मक ( अनिश्चयात्मक ) हैं, अतः वे अपने विषयका दर्शन ( ग्रहण ) नहीं कर सकते और अपने विषयका दर्शन न करनेपर वे सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकते। यदि अव्यवसायात्मक होने पर भी उन्हें अपने विषयका दर्शन करनेवाला माना जाय, तो जैसे वे नीलादिस्वलक्षण (विशेष ) वस्तुका दर्शन करते हैं, उसी तरह उसकी क्षणिकता आदिका भी उन्हें दर्शन करना चाहिए। किन्तु क्षणिकता आदिका वे दर्शन नहीं करते-व्यवसायात्मक अनुमान द्वारा ही उनका निश्चय माना जाता है।
अतः सिद्ध करेंगे कि 'बौद्धाभिमत चारों प्रत्यक्ष अपने विषयका
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