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________________ प्रस्तावना : १७ स्वयं उसे भौतिक ( तैजस ) और हमने पौद्गलिक स्वीकार किया है। ___'आकाशके साथ चक्षुका सन्निकर्षं रहते हए भी योग्यता न होनेके कारण उसका चाक्षुष ज्ञान नहीं होता' यह उत्तर भी साधु नहीं है, क्योंकि तब योग्यता हो साधकतम सिद्ध होगी, सन्निकर्ष नहीं। फिर प्रश्न है कि वह योग्यता क्या है ? यदि 'सन्निकर्षको विशिष्ट शक्ति' का नाम योग्यता है, तो वह शक्ति 'सहकारियोंका सन्निधान' हो सकतो है । उद्योत करने ‘सहकारि-सान्निध्यको ही शक्ति' कहा है । इस पर शंका होतो है कि वह सहकारी क्या है, जिसके सान्निध्यको शक्ति या योग्यता कहा जाता है ? क्या द्रव्य है, गुण है या कर्मादि ? यदि द्रव्यको सहकारी कहा जाय, तो वह द्रव्य आत्मद्रव्य तो सहकारी हो नहीं सकता, क्योंकि उसका सन्निधान चक्ष और आकाशके सन्निकर्ष में भी विद्यमान रहता है, परन्तु आकाशका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता। कालद्रव्य और दिग्द्रव्य ये दोनों द्रव्य भी सहकारी नहीं हो सकते, क्योंकि दोनोंका सन्निधान भी उनके व्यापक होनेसे आत्मद्रव्य की तरह चक्षु और आकाशके सन्निकर्ष में मौजूद है, पर आकाशका चाक्षुष ज्ञान नहीं होता। मनोद्रव्यको भी सहकारी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आकाशमें उसका भी सन्निधान हो सकता है, कभी किसी पुरुषका क्रियावान् अणुरूप मन उसमें जानेसे आकाशके साथ चक्षुःसन्निकर्ष सम्भव है. परन्तु उसके रहते हुए भी आकाशका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता। यहाँ सामग्री-प्रमाणवादी नैयायिक जयन्तभट्ट समाधान करते हैं कि 'आत्माका मनके साथ, मनका इन्द्रियके साथ और इन्द्रियका अर्थके साथ सम्बन्ध होता है और इस तरह चारका सन्निकर्ष अर्थनिश्चयमें साधकतम है', उनका यह समाधान भी समीचीन नहीं है, क्योंकि उक्त सामग्री आकाश और चक्षुःसन्निकर्ष में भी है, जैसे काल आदि सहकारी-सामग्री उसमें विद्यमान रहती है _ 'तेजोद्रव्य ( आलोक ) सहकारी है, उसके सन्निधानसे चाक्षुष ज्ञान होता है', यह समाधान भी उक्त समाधानोंसे कुछ वैशिष्ठय प्रकट नहीं करता, क्योंकि घटादिकी तरह आकाशमें भी चक्षुःसन्निकर्ष आलोकसन्निधानमें होनेसे आकाशका चाक्षुष ज्ञान अनिवार्य है। यदि कहा जाय कि 'अदष्ट नामका विशेषगुण चाक्षुष ज्ञानमें सहकारी है, उसका सान्निध्य संयुक्त समवाय है, क्योंकि चक्षु के साथ पुरुष (आत्मा) का संयोग और पुरुषमें अदृष्टनामक विशेष गुणका समवाय है, अतः आका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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