________________
१६ : प्रमाण-परीक्षा
'प्रदीप आदि अचेतन पदार्थ स्वनिश्चयमें करण न होनेपर भी घटादि पदार्थों के निश्चय ( प्रकाशन ) में करण हैं, अतः उपर्युक्त साधन ( हेतु) प्रदोपादिके साथ व्यभिचारी है और साधनके व्यभिचारी होनेसे उक्त अनुमान सदोष है।' यह विचार भी ठीक नहीं, क्योंकि यथार्थमें प्रदीपादि घटादिपदार्थोके निश्चयमें करण नहीं हैं। उनके निश्चय में नैयायिकोंने स्वयं चक्षु और मनको हो करणरूपमें स्वीकार किया है। प्रदोषादिको तो उनका सहकारी होनेसे उपचारसे करण कहा गया है। और यह मानना युक्त नहीं कि प्रदीपादि अर्थप्रकाशनमें ही उपचारसे करण हैं, स्वप्रकाशनमें नहीं, क्योंकि जिस प्रकार प्रदोपादि अर्थप्रकाशनमें चक्ष आदिके सहकारी होनेसे उपचारसे करण स्वीकृत हैं उसी प्रकार प्रदीपादिका ज्ञान उत्पन्न करने में भी वे ( प्रदीपादि ) चक्षु आदिके सहकारी होनेसे उपचारसे करण सिद्ध होते हैं ।
'चक्षु आदि स्वनिश्चयमें करण न होनेपर भी अर्थनिश्चयमें करण हैं, अतः उक्त साधन चक्ष आदिके साथ अनैकान्तिक है', यह मन्तव्य भी सम्यक नहीं है, क्योंकि उपकरणरूप चक्षु आदि इन्द्रियां अचेतन होनेसे अर्थनिश्चयमें उपचारसे करण हैं । वास्तव में अर्थग्रहणशक्तिरूप चक्षु आदि भावेन्द्रियाँ ही अर्थनिश्चयमें साधकतम होनेसे करण निर्णीत होती हैं। और यह असिद्ध नहीं है, जिनकी प्रतिभा निर्मल है उन्हें यह सहज ही अवगत हो सकता है। उसे अनुमानसे भी यहाँ सिद्ध किया जाता है
जिसके न होनेपर तथा अन्य कारणोंके होनेपर भी जो उत्पन्न नहीं होता वह उसका करण ( साधकतम ) है, जैसे कुठारके न होनेपर तथा अन्य कारणोंके रहनेपर भी काष्ठच्छेदन नहीं होता, अतः काष्ठच्छेदनका साधकतम ( करण) कूठारको माना जाता है उसी प्रकार भावेन्द्रियके न होने और द्रव्येन्द्रिय ( उपकरणेन्द्रिय ) एवं अन्य सहकारियोंके होनेपर भी घटादि पदार्थों का निश्चय नहीं होता, अतः उसका साधकतम ( करण) भावेन्द्रिय है।' यह भावेन्द्रिय ज्ञानावरणक्षयोपशमशक्ति और उपयोग ( ज्ञान ) रूप है।
यदि अर्थनिश्चय बाह्य करण ( सन्निकर्ष ) से स्वीकार किया जाय, तो जिस प्रकार घटके साथ चक्षु-सन्निकर्ष होनेसे घटका चाक्षुष ज्ञान होता है उसी प्रकार आकाशके साथ भी बाह्य करण-उपकरणरूप चक्षुका सन्निकर्ष होनेसे आकाशका भी चाक्षुष ज्ञान क्यों नहीं होता ? यह नहीं कहा जा सकता कि चक्षु आकाशकी तरह अमूर्तिक है, क्योंकि नैयायिकौने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org