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प्रस्तावना : १५
प्रवृत्त होते हैं, जो पूर्व ज्ञानोंसे अगृहीत होते हैं। अतएव भिन्न-भिन्न अंशोंको ग्रहण करनेकी अपेक्षा उक्त सभी प्रमाण अपूर्वार्थग्राही हैं और इसीसे प्रमाणके लक्षणमें स्पष्टताके बोधनार्थ 'अपूर्व', 'अनधिगत', 'अनिर्णीत' 'अगृहीत', 'अज्ञात' जैसा विशेषण 'अर्थ' के साथ समायोजित करना बतलाया है । इस मतके प्रतिपादक अकलंक, विद्यानन्द, मणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, धर्मभषण प्रति विद्वान् हैं। पर न्यायावतारकार सिद्धसेन, देवसूरि, हेमचन्द्र और यशोविजय उसे स्वीकार नहीं करते। इनका मन्तव्य है कि प्रमाण गृहीतग्राही भी हो, तो उससे उसका प्रामाण्य समाप्त नहीं होता। इस प्रकार जैन दर्शनिकोंने प्रमाणके सामान्य-स्वरूपपर विस्तृत विचार किया है। प्रस्तुत प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणस्वरूप-मीमांसा
ऊपर प्रमाणका सामान्य स्वरूप दिया गया है। अब विद्यानन्दद्वारा किया गया उसका विशेष विचार यहाँ प्रस्तुत है ।
विद्यानन्दने इस प्रमाणपरीक्षामें प्रमाणके सभी अङ्गों-स्वरूप, संख्या, विषय और फल-पर संक्षेपमें, किन्तु विशदताके साथ चिन्तन किया है।
स्वरूपका ऊहापोह करते हुए उन्होंने 'सम्यग्ज्ञान' को प्रमाणका स्वरूप निर्धारित किया है । उससे इतर सन्निकर्ष आदिको प्रमाण स्वीकार करनेमें जो बाधायें उपस्थित होती हैं उनका निर्देशपूर्वक उनकी उन्होंने विशद मीमांसा की है।
उनका मन्तव्य है कि 'सच्चा ज्ञान ही प्रमाण है, अज्ञान ( जो ज्ञान नहीं है वह) प्रमाण नहीं हो सकता' । नैयायिकादिका मत है कि 'सन्निकर्ष आदि अज्ञानरूप होकर भी अपने तथा बाह्य अर्थके निश्चय कराने में करण ( साधकतम ) हैं, अत: वे प्रमाण हैं' उनका यह मत युक्त नहीं है, क्योंकि सन्निकर्ष आदि अचेतन होनेसे स्वनिश्चय कराने में करण नहीं हो सकते। स्पष्ट है कि कोई अचेतन पदार्थ स्वनिश्चयमें उसी प्रकार करण सम्भव नहीं, जिस प्रकार वस्त्रादि स्वनिश्चयमें करण नहीं हैं। ___ यहाँ नैयायिकोंका कहना है कि 'सन्निकर्ष स्वनिश्चयमें करण न होने पर भी अर्थनिश्चयमें करण है', तो उनका यह कथन भी विचारपूर्ण नहीं है, क्योंकि सन्निकर्ष जब स्वनिश्चयमें करण नहीं है, तो वह अर्थनिश्चयमें करण नहीं हो सकता। इसे अनुमानसे यों सिद्ध किया जा सकता है कि सन्निकर्षादि अर्थनिश्चयमें करण ( साधकतम ) नहीं हैं, क्योंकि वे स्वनिश्चयमें करण नहीं हैं, दृष्टान्त वही वस्त्रादिका है।
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