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१४ : प्रमाण-परीक्षा
कि ज्ञान 'स्वनिर्णय' अवश्य करता है, किन्तु वह प्रमाण अप्रमाणज्ञानका साधारणधमं है— प्रमाणरूप ज्ञानका ही वह धर्म नहीं है और इसलिए वह प्रमाण (ज्ञानविशेष ) का लक्षण नहीं हो सकता, क्योंकि लक्षण असाधारण होता है | अतएव हमने स्वनिर्णयको प्रमाणका लक्षण नहीं कहा । वृद्धोंने जो उसे प्रमाणलक्षण माना है वह केवल परीक्षा या स्वरूपप्रदर्शन के लिए ही बतलाया है । हेमचन्द्रने' प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' या 'अनधिगत' जैसे पदके देने को भी अनावश्यक कहा है। उनका मन्तव्य है कि गृहीष्यमाण अर्थं ग्राहक ज्ञानकी तरह गृहीतार्थके ग्राही ज्ञानको भी प्रमाण मानने में कोई बाधा नहीं है। ध्यातव्य है कि श्वेताम्बर परम्पराके सभी जैन तार्किकको प्रमाणलक्षणमें 'अपूर्व' विशेषण अस्वीकृत है ।
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अभिनव धर्मभूषण' तत्त्वार्थसूत्रकार और विद्यानन्दकी तरह 'सभ्य'ज्ञान' को ही प्रथमतः प्रमाणका लक्षण बतलाया है । बादको उन्होंने उ उसका समर्थन एवं दोष परिहार करते हुए उसे माणिक्यनन्दिके 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' इस प्रमाणलक्षण में ही पर्यवसित किया है।
उपर्युक्त विवेचनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि जैन दर्शन में 'सम्यग्ज्ञान' को प्रमाणलक्षण माना है और उसे 'स्वपरव्यवसायात्मक' बतलाया है । अनेक ग्रन्थकार उसमें 'पर' ( अर्थ ) पदके साथ 'अपूर्व ' विशेषणका भी निवेश करके उसे 'अगृहीतग्राही' प्रतिपादन करते हैं । उनका मत है कि प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रमाण अनिश्चित एवं समारोपित विषयको ग्रहण करके अपनी अपूर्वता ( विशेषता ) स्थापित करते हैं । उदाहरणार्थ अनुभव ( प्रत्यक्ष ) के पश्चात् होनेवाली स्मृति भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में व्याप्त वस्तुके केवल अतीत अंशको ग्रहण करती है, जबकि अनुभव मात्र वर्तमान वस्त्वंशको जानता है । यद्यपि अंशके साथ अंशो भी अनुस्यूत रहने से गृहीत हो जाता है, पर उसका ग्रहण गौणरूपसे होता है, मुख्यतया उनके द्वारा अंशोंका ही ग्रहण होता है और अंश अंशोसे कथंचिद् भिन्न होनेके कारण प्रत्यक्ष और स्मृति में कथंचित् अपूर्वता रहती है । वास्तव में प्रत्यक्ष तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम ये पाँचों परोक्ष-प्रमाण वस्तुके उन अंशों में
१. गृहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् । प्र० मी०, १। ११४, पृ० ४, सिंघी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन । २. न्यायदी ० पृ० ९, वीर-सेवामंदिर प्रकाशन । ३. वही, १२, १८-२२ ।
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