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________________ प्रस्तावना : १३ अपूर्वार्थविषयताका स्पष्टतया समर्थन किया है।' प्रमाण के सामान्यलक्षण में जो उन्होंने 'अपूर्व' या 'अनधिगत' विशेषण नहीं दिया, उसका इतना ही तात्पर्य है कि प्रत्यक्ष तो अपूर्वार्थग्राही होता ही है, अनुमानादि भी प्रत्यक्षादिसे अगृहोत देशकालादिविशिष्ट वस्तुको विषय करनेसे अपूर्वार्थग्राहक सिद्ध हो जाते हैं। विद्यानन्दने जिस अपूर्वार्थका निरास किया है वह कुमारिलका अभिप्रेत सर्वथा अपूर्वार्थ है, कथंचिद् अपूर्वार्थ नहीं। कथंचिद् अपूर्वार्थ तो उन्हें इष्ट है । विद्यानन्दके परवर्ती माणिक्यनन्दिने अकलंक तथा विद्यानन्दद्वारा स्वीकृत और समर्थित समन्तभद्रोक्त लक्षणको ही अपनाया है। उन्होंने समन्तभद्रका 'स्व' पद ज्यों-का-त्यों रहने दिया और 'अर्थ' तथा 'व्यवसायात्मक' पदोंको अकलंक और विद्यानन्दसे लेकर एवं 'अर्थ' के विशेषणरूपसे 'अपूर्व' पदको उसमें जोड़कर 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' प्रमाणलक्षण सृजित किया है । यद्यपि 'अपूर्वार्थ' विशेषण कुमारिलके प्रमाण लक्षणमें हम देख चुके हैं तथापि वह अकलंक और विद्यानन्दद्वारा 'कथंचिद् अपूर्वार्थ' के रूपमें जैन परम्परामें प्रतिष्ठित हो चुका था। माणिक्यनन्दिने उसे ही अनुसत किया है। माणिक्यनन्दिका यह प्रमाणलक्षण इतना लोकप्रिय हआ कि उत्तरवर्ती अनेक जैन ताकिकोंने उसे ही कुछ आंशिक परिवर्तनके साथ अपने तर्क ग्रंथों में मूर्धन्य स्थान दिया है । - देवसूरिने अपना प्रमाणलक्षण प्रायः सिद्धसेनके न्यायावतारगत प्रमाणलक्षण और माणिक्यनन्दिके प्रमाणलक्षणके आधारपर लिखा है । हेमचन्द्रने उक्त लक्षणोंसे भिन्न प्रमाणलक्षण रचा है। इसमें उन्होंने 'स्व' पदका समावेश नहीं किया। तत्त्वार्थसूत्रकारके 'सम्यक' पदको ज्योंका-त्यों लेकर और उनके 'ज्ञान' पदके स्थान में निर्णय' पद देकर तथा उसके विशेषणके रूप में 'अर्थ' पद लगाकर 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्' लक्षण प्रस्तुत किया है। 'स्व' पद न देने का कारण बतलाते हुए वे कहते हैं १, २. प्रमाणप०, पृ० ४३, ४५ । त० श्लो० वा० १।१०७७, ७८, ७९ । ३. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् । ---परीक्षामु. १।१ । ४. स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणमिति ।-प्रमाणनयतत्त्वा० ।। ५. सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ।-प्र० मी० १।१।२। ६. स्वनिर्णयः सन्नप्यलक्षणम्, अप्रमाणेऽपि भावात्। न हि काचित् ज्ञानमात्रा सास्ति या न स्वसंविदिता नाम । ततो न स्वनिर्णयो लक्षणमुक्तोऽस्माभिः, वृद्धस्तु परीक्षार्थमुपक्षिप्तः ।-~-प्रमा० मी० १।१।३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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