SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ : प्रमाण-परीक्षा शमें चक्षुःसन्निकर्षका सहकारी-अदृष्टविशेषगुणका सन्निधान ( संयुक्तसमवाय ) न होनेसे आकाशका चाक्षुष ज्ञान नहीं होता', तो यह कथन भी संगत नहीं है, क्योंकि आकाशमें उसके कदाचित् रहने की सम्भावना होनेसे उसका चाक्षुषज्ञान क्यों नहीं होगा ? ___ 'सब पुरुषोंके अदृष्ट-विशेषगुणरूप सहकारीका हमेशा आकाशमें सन्निधान सम्भव न होनेसे उसका चाक्षुषज्ञान नहीं हो सकता' ऐसा उत्तर भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर ईश्वरको अदृष्टविशेषगुणका अभाव होनेसे श्रोत्रादि इन्द्रियोंकी तरह चक्षुद्वारा आकाश-विषयक ज्ञान कैसे होसकेगा? यदि यह माना जाय कि 'समाधिविशेषसे ईश्वरके धर्मविशेष उत्पन्न होता है, उसकी सहायतासे मनके द्वारा उसे आकाश आदि समस्त पदार्थों का ज्ञान हो जाता है', तो महेश्वरके चक्षु आदि बाह्येन्द्रियाँ निरर्थक हो जायेंगी, क्योंकि उनकी उसे आवश्यकता नहीं है। तथा जब उसके बाह्यकरण निरर्थक होगा, तो उसके अन्तःकरण ( मन ) भी नहीं बन सकता, जैसे मुक्तात्माके न बाह्यकरण है और न अन्तःकरण । अतः 'महेश्वर मनके द्वारा आकाशादि समस्त पदार्थों का ग्रहण करता है यह मान्यता कैसे संगत कही जा सकती है ! मनके अभाव में समाधिविशेष और उससे उत्पन्न धर्मविशेष ये दोनों भी ईश्वरके सिद्ध नहीं होते, क्योंकिवे दोनों आत्मा और मनके संयोगसे उत्पन्न होते हैं। ____ यदि कहा जाय कि 'महेश्वरके समस्त पदार्थों का ज्ञान अविच्छिनरूपसे विद्यमान रहता है और उनके इस अविच्छिन्न ज्ञानका कारण समाधिविशेषको सन्तति तथा धर्मविशेषकी सन्तति है, जो अनादि-अनन्त है, क्योंकि वे पापमलोंसे सतत अस्पृष्ट हैं और इसका भी कारण यह है कि वे संसारी और मुक्त दोनोंसे विलक्षण होनेसे सदामुक्त हैं,' यह कथन भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इस प्रकारसे अनोश्वर ( सामान्य पुरुष ) को भी कदाचित् पापमलके नाश होजानेसे पदार्थज्ञान हो सकता है। स्पष्ट है कि जिस प्रकार सतत मलाभाव सतत अर्थज्ञानकी सन्ततिका कारण है उसी प्रकार अल्पकालीन मलाभाव अल्पकालीन अर्थज्ञानका कारण है, यह भी युक्तियुक्त हैं। अतः उसे-मलाभाव (ज्ञानावरण और अन्तरायकर्मके क्षयोपशम ) को ही सन्निकर्षका सहकारी मानना उचित है। और वह मलाभाव-सान्निध्य हो सन्निकर्षको शक्ति ( योग्यता ) है । उसके अभावसे ही चक्षुःसन्निकर्ष रहनेपर भी आकाशका चाक्षुष ज्ञान नहीं होता। महेश्वर में जो विशिष्ट धर्मका सद्भाव माना जाता है वह भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy