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________________ प्रस्तावना : ११ वादियोंद्वारा उठायी गयी उस आपत्तिका भी परिहार किया है जिसमें कहा गया है कि यदि ज्ञानको प्रमाण स्वीकार किया जाता है तो प्रमाणके फलका अभाव हो जायगा। सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेपर तो उसका 'अर्थज्ञान' फल बन जाता है ? पूज्यपाद इस आपत्तिका परिहार करते हुए कहते हैं कि ज्ञानको प्रमाण माननेपर फलका अभाव नहीं होता, क्योंकि पदार्थका ज्ञान होने के उपरान्त प्रमाताको उसमें प्रीति होती है। प्रमाता ज्ञातास्वभाव है, किन्तु कर्मके कारण वह आच्छादित रहता है और इसलिए वह इन्द्रियोंको सहायतासे पदार्थ-निश्चय करता है और इस पदार्थनिश्चयमें उसे प्रीति ( अनुरक्ति ) होती है। यह प्रीति उसका फल है । अथवा उपेक्षा या अज्ञाननिवृत्ति अर्थज्ञानरूप प्रमाणका फल है। राग या द्वेषका लगाव न होना उपेक्षा है और अन्धकारतुल्य अज्ञानका दूर हो जाना अज्ञाननाश है। स्मरणीय है कि वात्स्यायन' और जयन्त भट्टने भी ज्ञानको प्रमाण स्वीकार किया है तथा उस स्थिति में प्रमाणका फल हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि बतलाया है। पर यह सत्य है कि न्यायदर्शनमें मुख्यतया उपलब्धिसाधन या प्रमाकरण रूपमें सन्निकर्ष या कारकसाकल्यको ही प्रमाण माना गया है और ज्ञानको सभीने एक मतसे अस्वसंवेदो प्रतिपादन किया है। ज्ञानको जो प्रमाण और उसके फलको हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धिरूप मान लिया गया है वह जैन दर्शनका प्रभाव प्रतीत होता है । जो हो, वह अनुसन्धेय है। ___अकलंकदेवने समन्तभद्रोपज्ञ उक्त प्रमाणलक्षण और पूज्यपादकीप्रमाणमीमांसाको मान्य किया है। पर सिद्धसेनद्वारा प्रमाणलक्षणमें दत्त 'बाधविवजित' विशेषण उन्हें स्वीकार्य नहीं है। उसके स्थानपर उन्होंने एक दूसरा ही विशेषण दिया है जो न्यायदर्शनके प्रत्यक्ष-लक्षणमें निहित है, पर प्रमाणसामान्यलक्षणवादियों और जैन ताकिकों के लिए वह नया है। वह विशेषण है-व्यवसायात्मक । अकलंकका मत है कि चाहे प्रत्यक्ष हो, और चाहे अन्य प्रमाण । प्रमाणमात्रको व्यवसायात्मक होना चाहिए। कोई १. यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमितिः, यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् । -न्यायभा० १११।३ । २. प्रमाणतायां सामग्र्यास्तज्ज्ञानं फलमिष्यते । तस्य प्रमाणभावे तु फलं हानादिबुद्धयः ।।-न्यायमं० पृष्ठ ६२ । ३. अक्षपाद, न्यायसू० १११।४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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