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१० : प्रमाण-परीक्षा साथ सन्निकर्ष और इन्द्रियप्रमाण सम्बन्धी मान्यताओंकी समीक्षा भी की है । उनका कहना है कि सन्निकर्ष या इन्द्रियको प्रमाण माननेपर सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों के साथ इन्द्रियोंका सम्बन्ध सम्भव न होने से उनके द्वारा उन पदार्थोंका ज्ञान असम्भब है । फलतः सर्वज्ञताका अभाव हो जायेगा। दूसरे, इन्द्रियाँ अल्प-केवल स्थूल, वर्तमान और आसन्न विषयक हैं और ज्ञेय ( सूक्ष्म, व्यवहितादिरूप ) अपरिमित है। ऐसी स्थिति में इन्द्रियों और सन्निकर्षसे समस्त ज्ञेयों ( अतीत-अनागतादिपदार्थों ) का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। तीसरे, चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी होने के कारण सभी इन्द्रियोंका पदार्थों के साथ सन्निकर्ष भी सम्भव नहीं है। चक्ष स्पष्टका ग्रहण न करने और योग्य दूर स्थितका ग्रहण करनेसे अप्राप्यकारी है ।२ यदि चक्षु प्राप्यकारी हो, तो उसे स्वयंमें लगे अंजनको देख लेना चाहिए। जैसे स्पर्शन इन्द्रिय स्पृष्टको ग्रहण कर लेती है। पर चक्षु स्पष्ट अंजनको नहीं ग्रहण करती। अतः चक्षु मनकी तरह अप्राप्यकारी है। दूसरे, स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी तरह वह समीपवर्ती वृक्षकी शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमाको एकसाथ नहीं देख सकती। तीसरे, चक्षु अभ्रक, काँच और स्फटिक आदिसे आच्छादित पदार्थोंको भी देख लेती है, जबकि प्राप्यकारी स्पर्शनादि इन्द्रियां उन्हें नहीं जान पातीं। चौथे, यह आवश्यक नहीं कि जो कारण हो वह पदार्थसे संयुक्त होकर ही काम करे । चुम्बक लोहेसे असंयुक्त होकर दूरसे ही उसे खोंचलेता है। पांचवें, चक्षुको प्राप्यकारी माननेपर पदार्थमें दूर और निकटका व्यवहार नहीं हो सकता। इन सव कारणोंसे चक्षु अप्राप्यकारी है।
पूज्यपादने ज्ञानको प्रमाण मानने पर सन्निकर्ष और इन्द्रिय प्रमाण
१. अथ सन्निकर्षे प्रमाणे सति इन्द्रिये वा को दोषः ? यदि सन्निकर्षः प्रमाणम्, सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टानामर्थानामग्रहणप्रसंगः ।।-स०सि० १३१०, पृष्ठ ७६ । २. ( क ) अप्राप्यकारि चक्षुः स्पृष्टानवग्रहात् । यदि प्राप्यकारि स्यात् त्वगिन्द्रियवत् स्पृष्टमंजनं गृह्णीयात् न तु गृह्णाति मनोवदप्राप्यकारीति । --स० सि० १११९, पृ० ११९, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । (ख) अकलंक, त० वा० १११९, पृ० ६७, ६८, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन । (ग) डॉ० महेन्द्रकुमार जैन, जैनदर्शन प० २७०, वर्णी-ग्रन्थमाला प्रकाशन । ३. ननु चोक्तं ज्ञाने प्रमाणे सति फलाभाव इति, नैष दोषः, अर्थाधिगमे प्रीतिदर्शनात् ।'"उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् ।" |स० सि० १११० । समन्तभद्र, आप्तमी० का० १०२ । माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ५।१।
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