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________________ प्रस्तावना : ९ नैयायिक-वैशेषिक एवं सांख्य प्रमाणको परसंवेदो ही स्वीकार करते हैं। परन्तु किसी भी ताकिकने प्रमाणको स्व और पर दोनोंका एकसाथ संवेदी नहीं माना । जैन ताकिक समन्तभद्र ही ऐसे ताकिक हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम प्रमाणको एकसाथ स्व- परपरिच्छेदी प्रतिपादन किया है। उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकोंने उनका अनुगमन करते हुए उसे स्वपरावभासी सिद्ध किया है। उनका मन्तव्य है कि ज्ञान चमचमाता हीरा या ज्योतिपूज दीपक है, जो अपने को प्रकाशित करता हुआ उसी काल में योग्य देशादिमें स्थित बाह्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जो स्वपरपरिच्छेद यथार्थ होता है वही प्रमाण है। 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्'-जिसके द्वारा प्रमा ( अज्ञाननिवृत्ति ) हो वह प्रमाण है, प्रमाणशब्दकी इस व्युत्पत्तिके अनुसार नैयायिक-वैशेषिक वह प्रमा सन्निकर्षसे, सांख्य इन्द्रियवृत्तिसे, मीमांसक इन्द्रियसे और बौद्ध सारूप्य एवं योग्यतासे स्वीकार करते हैं। अतः उनके यहाँ क्रमशः सन्निकर्ष, इन्द्रियवत्ति, इन्द्रिय और सारूप्य एवं योग्यताको प्रमाण माना गया है। समन्तभद्र ने स्वपरावभासक ज्ञानको प्रमाण प्रतिपादन करके उक्त मतोंको अस्वीकार किया है। बात यह है कि उक्त सन्निकर्षादि अज्ञान ( जड ) रूप हैं और अज्ञानसे अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रभा सम्भव नहीं है। अन्धकारकी निवृत्ति प्रकाशसे ही होती है, घटादिसे नहीं। न्यायावतारकार सिद्धसेनने' समन्तभद्रके उक्त प्रमाण-लक्षणको अपनाते हुए उसमें एक विशेषण और दिया है। वह है बाधविवर्जित । यह विशेषण कुमारिल के पूर्वोक्त प्रमाणलक्षणमें भी विद्यमान है। वास्तवमें यह विशेषण गद्धपिच्छोक्त 'सम्यक विशेषण और समन्तभद्रोक्त 'तत्त्व' 'विशेषण द्वारा गतार्थ हो जाता है। अतः 'बाधविजित' विशेषणको देने से कोई विशेष फल उपलब्ध नहीं होता। __तत्त्वार्थसूत्रके आद्य टीकाकार पूज्यपादने२ समन्तभद्रके अनुसरणके दिजातीयेन प्रत्यक्षादिजातीयस्य ग्रहणमातिष्ठामहे ।..'-न्यायवा० ता० टी० पृ० ३७० । 'विवादाध्यासिताः ( प्रत्ययाः ) प्रत्ययान्तरेणैव वेद्याः प्रत्ययत्वात्,... तथा च न स्वसंवेदनं विज्ञानमिति सिद्धम् ।'--विधिवि० न्यायकणि० प ० २६७ । प्रशस्तपा० व्योम० प ० ५२९ । प्रमे० क० मा० १-१० प ० १३२ । १. प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । ---न्यायाव० का० १। २. सन्निकर्ष: प्रमाणमिन्द्रियं प्रमाणमिति केचित् कल्पयन्ति तन्निवृत्त्यर्थं तदित्युच्यते । तदेव मत्यादि प्रमाणं नान्यदिति ।-स० सि० १।१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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