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________________ ८ : प्रमाण-परीक्षा असत्यार्थग्राही और क्षयोपशमजन्य होनेसे अज्ञान (मिथ्याज्ञान) हैं । कुन्दकुन्दका यह निरूपण प्रायः आगमपरम्पराका ही अनुसरण करता है। ___ तत्त्वार्थसूत्रकार गृद्धपिच्छने' अवश्य उक्त आगमपरम्पराको अपनाते हुए भी उसमें नया मोड़ दिया है। उन्होंने मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच आगमोक्त ज्ञानोंको सम्यग्ज्ञान कहकर उन्हें स्पष्टतया प्रमाण प्रतिपादित किया है। अर्थात् उन्हें प्रमाणका लक्षण बतलाया है। समन्तभद्रने उपर्युक्त सम्यग्ज्ञानको तत्त्वज्ञान कहा है और उसे प्रमाण वर्णित किया है । उसे उन्होंने दो भागोंमें विभक्त किया है--१ युगपत्सर्वभासी और २ क्रमभासी, जो स्याद्वादनयसे सुसंस्कृत होता है। ध्यान देने पर गृद्धपिच्छ और समन्तभद्रके प्रमाणलक्षणोंमें शब्दभेदको छोड़कर कोई मौलिक अर्थभेद प्रतीत नहीं होता । सम्यक् और तत्त्व दोनोंका एक ही अर्थ है और वह है-सत्य-यथार्थ । अत एव सम्यग्ज्ञानको या तत्त्वज्ञानको प्रमाण कहना एक ही बात है । ___ समन्तभद्रने एक और प्रमाणलक्षण दिया है, जिसमें उसे स्व और पर दोनोंका अवभासक कहा है। उनका यह 'स्वपरावभासकत्व' प्रमाणलक्षण बिलकूल नया और मौलिक है। उनसे पूर्व इस प्रकारका प्रमाणलक्षण उपलब्ध नहीं होता। विज्ञानाद्वैतवादी ‘स्वरूपस्य स्वतो गते', 'स्वरूपाधिगतेः परम्' आदि प्रतिपादनोंद्वारा प्रमाणको केवल स्वसंवेदी और सौत्रान्तिक 'अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणम्' 'अज्ञातार्थप्रकाशोवा', 'प्रमाणमविसंवादि ज्ञानामर्थक्रियास्थितेः' जैसे कथनों द्वारा उसे पर ( अर्थ ) संबेदी मानते हैं। परोक्षज्ञानवादी मीमांसक° तथा अस्वसंवेदी ज्ञानवादी११ १. मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे ।--त० सू० ११।९, १०। २. तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते, युगपत्सर्वभासनम् । ___ क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ।।-~-आप्तमी० का० १०१ । ३. देखिए, विद्यानन्द, अष्टस० का० १०१, पृ० २७६ । ४. स्वपरावभासक यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् ।--स्वयम्भूस्तो० का० ६३ । ५. धर्मकीर्ति, प्रमाणवा० २।४ । ६. वही, २१५ । ७. दिङ्नाग, प्रमाणसमु० ( स्त्रोपज्ञवृ० ) १ । ८ प्रमाणवा० २।५।। ९. वही, २११। १०. भाट्टानां मते ज्ञानमतीन्द्रियम् । ज्ञानजन्या ज्ञातता तया ज्ञानमनुमीयते ।-सिद्धान्त मु० पृ० ११९ । ११. ..."नापि च तयैव व्यक्त्या तस्या एव ग्रहणमुषेयते येनात्मनि वृत्तिविरोधो भवेत, अपि तु प्रत्यक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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