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प्रस्तावना : ७
माना है', क्योंकि बौद्ध दर्शनमें प्रमाण तथा प्रमाणफल दोनोंमें अभेद स्वीकार किया गया है । धर्मकीर्तिने अविसंवादी ज्ञानको प्रमाण प्रतिपादित किया है । और शान्तरक्षितने दिङ्नागकी तरह विषयाधिगति अथवा स्ववित्तिको प्रमाणफल तथा सारूप्य अथवा योग्यताको प्रमाण कहकर उनमें भेदकी ओर संकेत किया है । पर वह अभेद में ही पर्यवसित है ।
जैन चिन्तकों द्वारा प्रमाणस्वरूप-विमर्श
जैन दर्शन में भी प्रमाणके लक्षणपर चिन्तन किया गया है । आरम्भमें उसका क्या रूप रहा और उत्तर कालमें उसमें कितना व क्या विकास हुआ, इन बातोंपर यहाँ संक्षेप में विचार किया जाता है ।
आगमों में दर्शनशास्त्रीय पद्धति से प्रतिपादित प्रमाणकी विचारणा तो उपलब्ध नहीं है । पर उनमें आगमिक पद्धति से ज्ञान-मीमांसा विस्तारपूर्वक है । षट्खण्डागम में ज्ञानमार्गणानुसार आठ ज्ञानोंका प्रतिपादन करते हुए तीन ज्ञानोंको मिथ्याज्ञान और पाँच ज्ञानोंको सम्यग्ज्ञान निरूपित किया है ।
कुन्दकुन्दने उक्त आगमप्रतिपादित ज्ञानको प्रथमतः दो प्रकारका बतलाया है – १ स्वभावज्ञान और २ विभावज्ञान | स्वभावज्ञान एक ही तरहका है और वह है केवलज्ञान | विभावज्ञानके दो भेद हैं- १ सम्यग्ज्ञान और २ अज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) । मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान सत्यार्थग्राही और क्षयोपशमजन्य होनेसे सम्यज्ञानविभावज्ञान हैं और कुमति, कुश्रुत एवं विभंगावधि ये तीन ज्ञान
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१. स्वसंवित्तिः फलं चात्र तद्रूपादर्थनिश्यः । विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ॥ -- वही, ११० । २. प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् प्रमाणवा० । — २।१ । ३. विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ॥ -- तत्त्वसं० का० १३४४ ।
४. षट्खण्डागम १ । १ । १५ ।
५. णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं ति ।। १० ।।
केवल मंदिर हियं असहायं तं सहावणाणं ति ।
सणादिरवियप्ये विहावणाणं हवे
सण्णाणं चउभेयं मदि-सुद - ओहो तहेव अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो
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दुविहं ॥ ११ ॥
मणपज्जं ।
चेव ॥ १२ ॥ नियमसा० पृ०, ११, १२ ।
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