SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ : प्रमाणपरीक्षा करणार्थाभिधायी मानकर उनके द्वारा प्रदर्शित प्रमाणशब्दको उक्त व्युत्पत्तिसे सहमत है। किन्तु वे उस व्युत्पत्तिसे 'उपलब्धिसाधनं प्रमाणम्' ऐसा फलित न मानकर 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' इस प्रकार अवगम करते हैं। यद्यपि उपलब्धिसाधन और प्रमाकरण दोनोंमें सामान्यतः कोई अन्तर नहीं है, फिर भी सक्ष्म ध्यान देनेपर उनका अन्तर अवगत हो जाता है। उपलब्धिशब्दसे यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकारके ज्ञानका बोध होता है। किन्तु प्रमाशब्दसे यथार्थ ज्ञानका ग्रहण होता है और इस दष्टिसे जयन्तभद्रका उक्त फलित प्रमाणलक्षण विकसित और परिष्कृत है। मीमांसादर्शन में दो परम्पराएं हैं-एक कुमारिल भट्टकी और दूसरी प्रभाकरकी। कुमारिलने प्रमाणका लक्षण पाँच विशेषणोंसे युक्त बतलाया है। वह यह है तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥ यह श्लोक कुमारिलके नामसे प्रसिद्ध है। किन्तु उनके मीमांसा. श्लोकवात्तिकमें वह उपलब्ध नहीं है। हो सकता है कि वह कुछ प्रतियों में छूट गया हो। या उनके किसी दूसरे अनुपलब्ध ग्रन्थका हो । प्रभाकर' अनुभूतिको प्रमाण मानते हैं। उनके अनुयायी शालिकानाथ आदिने उसका समर्थन किया है। ___ सांख्य इन्द्रियवृत्तिको प्रमाणका लक्षण स्वीकार करते हैं। उनका मन्तव्य है कि इन्द्रियोंका उद्घाटनादि व्यापार होने पर अर्थप्रमिति होती है, उसके अभावमें नहीं। बौद्ध दर्शनमें सर्वप्रथम दिङ्नागने प्रमाणलक्षण किया जान पड़ता है। उन्होंने अज्ञातार्थके प्रकाशकको प्रमाण कहा है तथा विषयाकार अर्थनिश्चय और स्वसंवित्तिको फल बतलाकर उन्हें प्रमाणसे अभिन्न १. अनुभूतिश्च नः प्रमाणम् ।--बृहती १११।५। २. प्रकरणपं० प्रमाणपा० पृ०६४। ३. प्रमाणं वृत्तिरेव च ।-योगवा० पृ० ३० । रूपादिषु पंचानामालोचनमात्र मिष्यते वृत्तिः ।--सांख्यका० २८ । माठरवृ० ४७ । सांख्यप्र० भा० १--८७, पृ० ४७ । योगद० व्यासभा० पृ० २७ । ४. अज्ञातार्थप्रप्रकाशकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम् ।--प्रमाणसमु० का० ३, पृ० ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy