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________________ प्रस्तावना : ५ और शिरोनति आदिको कायिक मङ्गल कहा गया है । वाचिक मङ्गल दो प्रकारसे किया जाता है -१ निबद्ध और २ अनिबद्ध । जो मङ्गल श्लोकादिके रूप में शास्त्रमें लिखा जाता है वह निबद्ध वाचिक और जो लिखा न जाकर केवल मुखसे उच्चारण किया जाता है वह अनिबद्ध वाचिक मंगल है। इसीसे कितने ही शास्त्रकार ग्रन्थ-प्रणयनकी शीघ्रताके कारण निबद्ध-वाचिक मंगल न करते हुए भी मानसिक, कायिक या अनिबद्ध वाचिक मंगल करने वाले माने गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थमें ग्रन्थकारने 'जयन्ति निजिताशेष-' आदि पद्य द्वारा निबद्ध-वाचिक मङ्गल किया और मंगलाचरणकी पूर्व परम्पराका अनुसरण किया है। ध्यातव्य है कि इस मङ्गल पद्यको 'प्रमाणप्रमेयकलिका' में उसके कर्ता श्रीनरेन्द्रसेनने भी अपना मङ्गलाचरण बनाया है और उसके वैशिष्ठयको ख्यापित किया है। २. प्रमाण-लक्षण भारतीय दर्शनों में सर्वप्रथम प्रमाणका लक्षण किसने किया, इसका अनुसन्धान करनेपर ज्ञात होता है कि वैशेषिक दर्शनकार मुनि कणादने स्वाभिमत सात पदार्थों के अन्तर्गत गणपदार्थके चौबीस भेदोंमें परिगणित बुद्धिको दो प्रकारकी कही है-१. विद्या और २. अविद्या। जो निर्दोष ज्ञान है वह विद्या है और जो निर्दोष ज्ञान नहीं है वह अविद्या है। कणादके इस प्रतिपादनानुसार निर्दोष ज्ञानरूप विद्या प्रमाण हैं । न्यायसूत्रकार गौतमने प्रमाणका लक्षण नहीं कहा। किन्तु उनके न्यायसूत्रपर भाष्य लिखनेवाले वात्स्यायनने अवश्य उपलब्धिसाधनको प्रमाण बतलाते हए उसे 'प्रमाण' शब्दकी 'प्रमीयतेऽनेनेति' इस व्युत्पत्तिद्वारा फलित किया है। उद्योतकरने भाष्यकारका ही अनुसरण किया है। जयन्तभद्र भी भाष्यकार तथा वात्तिककारको तरह प्रमाणशब्दको १. 'तच्च मंगलं दुविहं णिबद्धमणिबद्धमिदि । तत्थ णिबद्धं णाम, जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्ध-देवदा-णमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं। जो सुत्तस्सादीए.." कय-देवदा-णमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं ।'-धवला पुस्तक १, १।१।१ पृ० ४१ । २. प्रमा० प्रमे० क० पृ० १, भारतीय ज्ञानपीठ काशी प्रकाशन । ३. 'अदुष्टं विद्या'-वैशेषिकसू० ९।२।१२। ४. न्यायभाष्य पृष्ठ १८ । ५. न्यायवा० पृ० ५। ६. 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणार्थाभिधायिनः प्रमाणशब्दात् प्रमाकरणं प्रमाणमवगभ्यते ।'--न्यायमं० पृ० २५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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