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४ : प्रमाण-परीक्षा
जैनागम उपलब्ध प्रसिद्ध 'षट्खण्डागम' ' में सुप्रसिद्ध ' णमो अरहंताणं' आदि गाथाद्वारा मङ्गल किया गया है । 'तिलोयपण्णत्ति' में मङ्गलका प्रयोजन, उसकी आवश्यकता आदिपर विस्तृत और साङ्गोपाङ्ग प्रतिपादन उपलब्ध है । 'धवला' टीकामें भी मङ्गलकी विस्तारपूर्वक चर्चा की गयी है | आचार्य कुन्दकुन्दने पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, नियमसार, समयसार आदि सभी ग्रन्थों में मङ्गलगान किया है। आद्य जैन संस्कृतगद्यसूत्र ग्रन्थ 'तत्त्वार्थ सूत्र' में भी आचार्य गृद्धपिच्छने 'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' आदि मङ्गलश्लोकको निबद्धकर उसका आरम्भ किया है ।
मङ्गलके अनेक प्रयोजन बतलाये गये हैं । निर्विघ्न शास्त्र - परिसमाप्ति, शिष्टाचार-परिपालन, नास्तिकता परिहार, कृतज्ञता - प्रकाशन और शिष्यशिक्षा ये पाँच प्रयोजन अभिहित हैं । इनके अतिरिक्त 'पुण्यावाप्ति' भो एक प्रयोजन गिनाया गया है । 'अप्तपरीक्षा' में' ग्रंथकार आचार्य विद्यानन्दने 'श्रेयोमार्गसंसिद्धि' को भी मङ्गलका सबसे बड़ा प्रयोजन कहा है । शास्त्र में तीन स्थानोंपर मङ्गल करनेका विधान किया गया है और तीनों स्थानोंके मङ्गलका फल बतलाते हुए कहा गया है कि आरम्भ में मङ्गल करनेसे शिष्य सरलता से शास्त्र - पारंगत होते हैं, मध्य में मङ्गलके करने से उन्हें निर्विघ्न विद्या प्राप्ति होती है और अन्तमें मङ्गलके आचरणसे वे विद्या-फल ( निःश्रेयस् ) को प्राप्त होते हैं ।
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दशवेकालिकनिर्युक्ति ( गा० २) विशेषावश्यकभाष्य ( गा० १२ से १४ ), बृहत्कल्पभाष्य ( गा० २० ) आदि श्वेताम्बर वाङ्मय में भी मङ्गलका प्रतिपादन है ।
मङ्गल तीन प्रकारका बतलाया गया है - १ मानसिक, २ वाचिक और ३ कायिक । भगवत्स्मरणको मानसिक, भगवद्गुणसंस्तवनको वाचिक
१. पट्ख० ११११ पुस्तक १, पृ० ८। २. गाथा १-८ से १-३१ । ३. धवला १।१।१ पुस्तक १, पृ० ८ से ४१ ।
४. नास्तिकत्व - परिहारः शिष्टाचारप्रपालनम् ।
पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् । । - उद्धृत अन० ध० पृ० १५. आप्तप० का ० २ । ६. ति० प० १ २९, ३१ । ७ न्यायदी० पृ० ३ का टिप्पण | तथा 'कतिविधं मंगलम् ? मंगलसामान्यात्तदेकविधम्, मुख्या मुख्यभेदतो द्विविधम्, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्त्रिविधम्, " - धवला पुस्तक १, ११११ पृ० ३७ ।
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