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प्रस्तावना : ३
शब्दों द्वारा प्रथम और द्वितीय दो प्रकरों का संकेत किया है । इसके बाद ( पृष्ठ ६५ पर) दिये गये 'विषयविप्रतिपत्तिनिराकरणाथं पुनरिदमभिधीयते' वाक्यद्वारा तीसरे 'प्रमाणविषयपरीक्षा' प्रकरणकी सूचना की गयी है, जो पृष्ठ ६५, अनुच्छेद १७६ से आरम्भ है और पृष्ठ ६६, अनुच्छेद १७७ में समाप्त है। इसके पश्चात् ( पृष्ठ ६६ पर ) प्रयुक्त 'फलविप्रतिपत्तिनिवृत्त्यर्थं प्रतिपाद्यते' शब्दोंसे 'प्रमाणफलपरीक्षा' नामके चौथे प्रकरणका भी स्पष्ट निर्देश है। यह पष्ठ ६६, अनुच्छेद १७८ से पृष्ठ ६७, अनुच्छेद १८० तक है । पिछले तीन प्रकरणोंमें दूसरा 'प्रमाणसंख्यापरीक्षा' प्रकरण सबसे बड़ा है और वह ग्रन्थके आधे भागसे अधिक सैंतीस पृष्ठ जितना है । इसमें स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन पाँच परोक्ष प्रमाणोंका इतरमतको मीमांसाके साथ विशद निरूपण है। इनमें अनुमान व उसके परिवारका सबसे अधिक वर्णन है। तीसरा और चौथा ये दो प्रकरण बहत छोटे हैं। लगभग दोनों ही आधा-आधा पृष्ठके हैं। तीसरेमें प्रमाणका विषय सामान्यविशेषात्मक वस्तू बताया गया है तथा चौथेमें प्रमाणका फल कथञ्चिद्भिन्नाभिन्न प्रतिपादित किया है। इस प्रकार यह ज्ञात करना कठिन नहीं है कि ग्रन्थमें परिच्छेद या अध्यायका विभाग न होने पर भी विषय-प्रतिपादक प्रकरण-विभाग तो है हो और वह चार प्रकरणों में स्पष्टतया प्राप्त है । विषय-परिचय
यद्यपि उक्त ग्रन्थ-परिचयसे ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय सामान्यतया विदित हो जाता है, तथापि विषय-परिचय द्वारा ग्रन्थ में चचित विषयोंका यहाँ कुछ विस्तृत और विवेचनात्मक प्रतिपादन अभीष्ट है। इससे पाठकों, विशेषतया प्रमाणशास्त्रके प्राथमिक जिज्ञासुओंके लिए बोधवर्धक पर्याप्त सामगी प्राप्त हो सकेगी। १. मङ्गलाचरण
भारतीय वाङ्मयमें मङ्गलाचरण की परम्परा बहुत प्राचीन है। मीमांसादिदर्शनोंमें 'अथातो धर्मजिज्ञासा'' जैसे शब्दोंका प्रयोग करके ग्रन्थारम्भ किया गया है । 'अथ' और 'ओम्' शब्दोंको मङ्गलवाची माना गया है ।२ जैन वाङ्मयमें तो मङ्गलाचरणकी प्रवृत्ति विशेष रही है।
१. मीमांसासूत्र १।१ । २. वैशेषि० सूत्रोप० पृ० २ ।
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