________________
२: प्रमाण-परीक्षा गम्भीरता एवं विस्तार भी इसमें नहीं है । ऐसा संक्षेप भी नहीं है, जिससे विषय स्पष्ट और हृदयङ्गम न हो सके। किन्तु मध्यम शैलीका आलम्बन लेकर विषयका प्रतिपादन किया गया है । (ग) उद्देश्य व प्रयोजन
इसमें सन्देह नहीं कि इसका प्रणयन उन जिज्ञासुओंकी दृष्टिसे किया गया है, जिनका जैन प्रमाणशास्त्र में प्रवेश नहीं है और जा तदोय प्रमाणविवेचनसे सरलतासे अवगत होना चाहते हैं । प्रमाणका विचार वास्तव में एक ऐसा विचार है, जिसका सीधा सम्बन्ध तत्त्वज्ञानसे है और तत्त्वज्ञान निःश्रेयसका प्रधान कारण माना गया है । इसके अतिरिक्त वह समस्याओंसे बहुल लोकव्यवहार में भी बहुत उपयोगी और अनिवार्यरूपसे वांछनीय है। इसी उद्देश्य एवं प्रयोजनसे भारतीय दर्शनोंमें प्रमाणपर अधिक चिन्तन हुआ है और छोटी-बड़ी अनेकों रचनाएँ लिखी गयी हैं। विद्यानन्दने भी उसी उद्देश्य और प्रयोजनसे प्रमाणशास्त्रके अभ्यासियों के लिए इस मध्यम परिमाणकी कृतिकी रचना की और उसमें जैन दष्टिसे प्रमाणपर विचार किया है। (घ) विभाग
भारतीय दर्शनोंमें प्रमाणपर विचार करते समय चार बातें विचारणीय रही हैं-१ प्रमाणका स्वरूप, २. प्रमाणकी संख्या, ३. प्रमाणका विषय और ४. प्रमाणका फल । ग्रन्थकारने भी इन्हीं चार बातोंका इसमें कहापोह किया है। साथ हो विभिन्न दार्शनिकोंको तत्सम्बन्धी मान्यताओंकी संक्षेपमें किन्तु विशदतासे मामांसा भी की है। यद्यपि ग्रंथमें परिच्छेद या अध्याय जैसा विभाग नहीं है तथापि उक्त चारों बातों ( विषयों) के प्रतिपादक चार प्रकरण इसमें अवश्य पाये जाते हैं ।
प्रथम प्रकरण 'प्रमाणलक्षणपरीक्षा' है, जो प्रस्तुत ग्रंथमें पृष्ठ १, अनुच्छेद २ से आरम्भ होकर पृष्ठ २८, अनुच्छेद ६४ तक है। इसमें नैयायिकादिद्वारा स्वीकृत सन्निकर्षादिप्रमाणलक्षणों की परीक्षापूर्वक सम्यग्ज्ञानको प्रमाणका अनवद्य लक्षण प्रतिपादित किया है। द्वितीय प्रकरण 'प्रमाणसंख्यापरीक्षा' है। यह पृष्ठ २८, अनुच्छेद ६५ से लेकर पृष्ठ ६५, अनुच्छेद १७५ तक है। इसकी जहाँ ( पृष्ठ ६५ पर ) समाप्ति हुई है वहाँ ग्रन्थकारने 'इति संख्याविप्रतिपत्तिनिराकरणमनवद्यम, लक्षणविप्रतिपत्तिनिराकरणवत' शब्दो का प्रयोग किया है। उससे ज्ञात होता है कि यहाँ उन्होंने उक्त
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org