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११६ : प्रमाण-परीक्षा विस्तारके साथ करते हुए देखते हैं तो उनकी अगाध विद्वत्ता, असाधारण प्रतिभा और सूक्ष्म प्रज्ञापर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उनका मीमांसा और वेदान्त दर्शनोंका कितना गहरा और तलस्पर्शी पाण्डित्य था, यह सहज ही उनका पाठक जान जाता है। जहाँ तक हम जानते हैं, जैन वाङमयमें यह भावना-नियोग-विधिकी दुरवगाह चर्चा सर्वप्रथम तीक्ष्णबुद्धि विद्यानन्द द्वारा ही की गई है और इसलिए जैन दर्शनको यह उनकी अपूर्व देन है। मीमांसादर्शनकी जैसी और जितनी सबल मीमांसा तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकमें है वैसी और उतनी जैन वाङमयकी अन्य कृतियों में नहीं है।
(२) जाति-समीक्षा--आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमातण्ड (पृ० ४८२-४८७) और न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ७६८-७७२) में जो ब्राह्मणत्व जातिकी विस्तृत और विशद मीमांसा की है तथा जाति-वर्णकी व्यवस्था जन्मसे न होकर गुण-कर्मसे सिद्ध की है उसका आरम्भ जैन ग्रन्थोंमें सर्वप्रथम आ० विद्यानन्दसे हआ जान पड़ता है। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० ३५८) में ब्राह्मणत्व आदि जातियोंकी व्यवस्था गुण-कर्मसे बतलाते हुए लिखा है कि ब्राह्मणत्व, चाण्डालत्व आदि जातियाँ सम्यग्दर्शनादि गुणों तथा मिथ्यात्वादि दोषोंसे व्यवस्थित हैं, नित्य जाति कोई नहीं है। जो उन्हें अनादि, नित्य सर्वगत और अमूर्त स्वभाव मानते हैं वह प्रत्यक्ष तथा अनुमान दोनोंसे बाधित है। इस तरह विद्यानन्दने जातियोंके सम्बन्धमें नये चिन्तनका सूत्रपात किया, जिसे प्रभाचन्द्र आदि उत्तरवर्ती ताकिकोंने पल्लवित एवं विस्तृत किया।
(३) सह-क्रमानेकान्तकी परिकल्पना-आचार्यमूर्धन्य गृद्धपिच्छने द्रव्यका लक्षण गुण और पर्याययुक्त प्रतिपादित किया है । यद्यपि यही लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द भी प्रकट कर चुके हैं। इसपर शङ्का की गई कि 'गुण' संज्ञा तो इतर दार्शनिकों (वैशेषिकों) की है, जैनोंकी नहीं। उनके यहाँ तो द्रव्य और पर्याय रूप ही वस्तु वर्णित है और इसीसे उनके ग्राहक द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दो ही नयोंका उपदेश है । यदि गुण भी उनके यहाँ मान्य हो तो उसको ग्रहण करनेके लिए एक और तीसरे गुणार्थिक नयकी भी व्यवस्था होना चाहिये ? इस शङ्काका समाधान सिद्धसेन, अकलङ्क और विद्यानन्द इन तीनों प्रमुख ताकिकोंने किया है। सिद्धसेनने' बतलाया कि 'गुण' पर्यायसे १. सन्मतिसूत्र ३-९, १०, १२ ।
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