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प्रस्तावना : ११७
भिन्न नहीं-पर्यायमें ही गुणसंज्ञा जैनागममें स्वीकृत है और इसलिए गुण तथा पर्याय एकार्थक हैं। अतएव पर्यायार्थिक नय द्वारा ही गुणका ग्रहण होनेसे गुणार्थिक नय पृथक् उपदिष्ट नहीं है। अकलङ्क' कहते हैं कि द्रव्यका स्वरूप सामान्य और विशेष दोनों रूप है तथा सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय, गुण ये सब उसके पर्याय शब्द हैं। तथा विशेष, भेद, पर्याय ये तीनों विशेषके पर्यायवाची हैं। अतः सामान्यको ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक और विशेषको विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय है । अतएव गुणका ग्राहक द्रव्यार्थिक नय ही है, उससे जुदा गुणार्थिक नय प्रतिपादित नहीं हआ। अथवा गुण और पर्याय अलग-अलग नहीं हैंपर्यायका ही नाम गुण है।
सिद्धसेन और अकलङ्कके इन समाधानोंके बाद भी शङ्का उठायी गयी कि यदि गुण, द्रव्य या पर्यायसे अतिरिक्त नहीं है तो द्रव्यलक्षणमें गुण और पर्याय दोनोंका निवेश क्यों किया ? 'गुणवद् द्रव्यम्' या 'पर्यायवद् द्रव्यम्' इतना ही लक्षण पर्याप्त था ? इसका उत्तर विद्यानन्दने जो दिया वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एव सूक्ष्मप्रज्ञतासे भरा हुआ है। वे कहते हैं कि वस्तु दो तरहके अनेकान्तोंका रूप (पिण्ड) है-१. सहानेकान्त और २. क्रमानेकान्त । सहानेकान्तका ज्ञान करानेके लिए गुणयुक्तको और क्रमानेकान्तका निश्चय करानेके लिए पर्याययुक्तको द्रव्य कहा है । अतः द्रव्यलक्षणमें गुण तथा पर्याय दोनों पदोंका निवेश युक्त एवं सार्थक है। __ जहाँ तक हम जानते हैं, विद्यानन्दसे पूर्व अकलङ्कदेवने सम्यगनेकान्त और मिथ्यानेकान्तके भेदसे दो प्रकारके अनेकान्तोंका तो प्रतिपादन किया है । परन्तु सहानेकान्त और क्रमानेकांत इन दो तरहके अनेकान्तोंका कथन विद्यानन्दसे पूर्व उपलब्ध नहीं होता। इन अनेकान्तोंके कथन और उनकी सिद्धिके लिए द्रव्यलक्षणमें गुण तथा पर्याय दोनों पदोंके निवेशका समाधान विद्यानन्दकी अद्भुत प्रतिभाका सुपरिणाम है । उनका यह समाधान और स्पष्ट शब्दोंमें सहानेकान्त और क्रमानेकान्त इन दो अनेकान्तोंकी परिकल्पना इतनी सजीव एवं सबल सिद्ध हुई कि स्याद्वाद
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१. तत्त्वार्थवात्तिक ५-३७ । २. गुणवद् द्रव्य मित्युक्त सहानेकान्तसिद्धये ।
तथा पर्यायवद् द्रव्यं क्रमानेकान्तसिद्धये ।।-तत्त्वा० श्लो० पृ० ४३८ ।
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