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११४ : प्रमाण-परीक्षा सूरिने अपने ‘स्याद्वादरत्नाकर' में इसके नामोल्लेख पूर्वक इसकी एक पंक्ति दी है और पंक्तिगत विषयकी आलोचना की है। देवसूरिके उल्लेखसे जहाँ इस ग्रन्थकी प्रसिद्धि और महत्ता प्रकट है वहाँ विद्यानन्द (नवमी शती) से देवसूरि (तेरहवीं शती) तक चार सौ वर्ष बाद भी इसका अस्तित्व सिद्ध है। शास्त्रभण्डारोंमें इसकी गहरी और सूक्ष्म खोज होना चाहिए । सम्भव है वह मिल जाय ।।
(२) तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक-यह आ० गृद्धपिच्छ (उमास्वामी अथवा उमास्वाति) रचित तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई विद्वत्तापूर्ण विशाल टीका है। जैन वाङमयके उपलब्ध दार्शनिक ग्रन्थोंमें यह बेजोड़ रचना है और तत्त्वार्थसूत्रकी समग्र टीकाओंमें प्रथम श्रेणीकी टीका है। इसमें अनेक नये विषयोंका अपूर्व चिन्तन है। लगता है कि जैमिनिसूत्रपर कुमारिलभट्ट द्वारा रचे गए मीमांसाश्लोकवात्तिकके जवाबमें विद्यानन्दने आ० गृद्धपिच्छके तत्त्वार्थसूत्रपर यह तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और उसका भाष्य लिखा है, जबकि कुमारिलने अपने मीमांसाश्लोकवात्तिकका भाष्य नहीं लिखा।
(३) अष्टसहस्री—यह स्वामी समन्तभद्रके देवागम (आप्तमीमांसा) पर लिखी गई महत्त्वपूर्ण रचना है। भट्टाकलङ्कदेव द्वारा देवागमपर रची गई गहन एवं दुरूह व्याख्या 'अष्टशती' को विद्यानन्दने इसमें ऐसा आत्मसात् किया है कि उसका पार्थक्य दिखाई नहीं देता। विद्यानन्दने मल देवागमका तो मर्मोदघाटन इसमें किया ही है, अष्टशतीका भी हृदयस्पर्शी एवं आश्चर्यजनक मर्म उद्घाटित किया है।
(४) युक्त्यनुशासनालङ्कार–स्वामी समस्तभद्रके ही एक दूसरे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ युक्त्यनुशासनकी विद्यानन्दने इसमें व्याख्या की है । यह मध्यम परिमाणकी सुन्दर एवं विशद टीका है।
(५) आप्तपरीक्षा–स्वामी समन्तभद्रने जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मङ्गल-पद्य पर उसके व्याख्यानमें 'आप्तमीमांसा' लिखी है उसी प्रकार विद्यानन्दने उसी मङ्गलश्लोकके व्याख्यानमें यह 'आप्तपरीक्षा' रची है और उसकी स्वयं 'आप्तपरीक्षालङ कृति' नामकी व्याख्या भी लिखी है। यह रचना विशद और सुबोध है।
(६) प्रमाण-परीक्षा--यह प्रस्तुत है। पूर्वोक्त ग्रन्थ-परिचयसे विदित है कि इसमें दर्शनान्तरीय प्रमाणोंके स्वरूपादिकी समीक्षापूर्वक १. "महोदये च कालान्तराविस्मरणकरणं हि धारणाभिधानं ज्ञानं संस्कारः प्रतीयते इति वदन् ( विद्यानन्दः ) संस्कारधारणयोरैकार्थ्यमचकथत् ।"स्या० रत्ना पृ० ३४९ ।
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