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प्रस्तावना : ११३ के-स्थल उद्धृत किए और अपने अभिधेयको उनसे पुष्ट किया है। विद्यानन्दकी अष्टसहस्रीको, जिसके विषयमें उन्होंने स्वयं लिखा है कि 'हजार शास्त्रोंको सुनने की अपेक्षा अकेली इस अष्टसहस्रीको सुन लीजिए, उसीसे ही समस्त सिद्धान्तोंका ज्ञान हो जायेगा,' पाकर यशोविजय भी इतने विभोर एवं मुग्ध हुए कि उन्होंने उस पर 'अष्टसहस्री-तात्पर्यविवरण' नामकी नव्यन्यायशैली प्रपूर्ण विस्तृत व्याख्या लिखी है। इस तरह हम देखते हैं कि आ० विद्यानन्द एक उच्चकोटिके प्रभावशाली दार्शनिक एवं तार्किक थे तथा उनकी अनूठी दार्शनिक कृतियाँ भारतीय विशेषतः जैनवाङमयाकाशकी दीप्तिमान् नक्षत्र हैं। जैन दर्शनको उनकी अपूर्व देन
_ विद्यानन्दने जैन दर्शनको दो तरहसे समृद्ध किया है। एक तो अपनी कृतियोंके निर्माणसे और दूसरे उनमें कई विषयोंपर किए गए नये चिन्तन से । हम यहाँ उनके इन दोनों प्रकारोंपर कुछ विस्तारसे विचार करेंगे । (क) कृतियाँ
जैन दर्शनके लिए विद्यानन्दकी जो सबसे बड़ी देन है वह है उनकी नौ महत्वपूर्ण रचनाएँ । वे ये हैं
(१) विद्यानन्दमहोदय, (२) तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, (३) अष्टसहस्री, (४) युक्त्यनुशासनालङ्कार, (५) आप्तपरीक्षा, (६) प्रमाणपरीक्षा, (७) पत्रपरीक्षा, (८) सत्यशासनपरीक्षा और (९) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र । इनमें तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक, अष्टसहस्री और युक्त्यनुशासनालङ्कार ये तीन व्याख्या और शेष उनके मौलिक ग्रन्थ हैं।
(१) विद्यानन्दमहोदय-यह विद्यानन्दकी सम्भवतः आद्य रचना है, क्योंकि उनके उत्तरवर्ती प्रायः सभी ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। और जो सूचनाएं दी हैं उनमें कहा गया है कि प्रकृत विषयको विद्यानन्दमहोदयसे जानना चाहिये । किन्तु आज यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। विक्रमकी १३वीं शताब्दी तक इसका अस्तित्व मिलता है। देव
१. श्रोतव्याष्टसहस्री श्रृ तैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः ।
विज्ञायेत ययैव स्वसमय-परसमयसद्भावः ।।-अष्टस. पृ० १५७ । २. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० २७२, ३८५; अष्टसहस्री पृ० २९०; आप्तपरीक्षा
पृ० २६२ ।
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